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________________ असुरकुमार में असन्नी तियंच पंचेंद्रिय ऊपजं, तेहनो अधिकार' ओघिक ने ओधिक (१) ६. जाव पर्याप्त असन्नी पंचेंद्री, तिर्यंच प्रभुजी ! तेह बे । ऊपजवा ने जोग्य अछे जे, असुरकुमार विषेह बे ॥ ७. किता काल स्थितिक विषे ते प्रभु ऊपजे ? जिन कहै जघन्य सुइष्ट बे । ! अपने दश सहस्र वर्ष स्थिति के पत्य में असंख भाग उत्कृष्ट बे ॥ सोरठा ८. यहां पल्य नों पेख, असंख्यातम ग्रहिये करि सुविशेख, ग्रहियो पूर्व ९. असन्नी तिरि नों जाण, आउचो कोड़ छै पूर्व कोड़ परिमाण, आख्यो ति १०. ते असन्नी सुर आयु, बांधे तो उत्कृष्ट थी। निज स्थिति तुल्य पायु, पिण अधिक न बंधे इम वृत्तौ ॥ ११. वृत्तिविषे ए बात देखी जिम दाखी इहां पण निश्चय अवदात, व केवली तेह सत्य ॥ १२. * ते एक समय प्रभु ! किता ऊपजै ? जिम रत्नप्रभा रे मांहि वे । असन्नी ऊपजै तसु नव गमका, ते सम भणवा ताहि बे ॥ १३. नवरं तु पंचम षष्ठम गम, जघन्य स्थितिक तिरिताय । अध्यवसाय शुभ पिण नहि मुंडा, शेष तिमज कहिवाय बे ॥ सोरठा १४. असन्नी नरके जाय जघन्यायु तिरि नां हुवै । माठा अध्यवसाय, सुरगामी नां शुभ हुवै ॥ १५. *जो सन्नी पंचेंद्री तिथंच थकी जे, ऊपजे असुर मकार थे। स्यूं वर्ष संख्या सन्नी यावत ऊपजे, भाग जे । कोड़ जे । उत्कृष्ट थी। कारणे ॥ *लय धन प्रभु रामजी १. परि० २. यंत्र १६ २. इस सन्दर्भ में वृत्तिकार ने चूर्णिकार के मत को उद्धृत किया है। वह इस प्रकार है ५२ भगवती जोड़ के असंध वर्षां धी धार के ? उक्कोसेणं स तुल्लपुत्र कोडी आउयत्तं निवत्तेइ । न य संमुच्छिमो पुव्वकोडी आउयत्ताओ परो अस्थि । ( वृ० प० ८२० ) Jain Education International ६. जाव (०२४०११६) पज्जत्ता अस णिपंचिदियतिरिक्खजोणिए णं भंते ! जे भविए अमरकुमारे ए ७. से भंते! केवतिकालद्वितीएस उपवज्जेन्या ? गोयमा ! मह दसवाससीए उवकोसेणं पलिभोवमस्स असंखेज्जइभागट्ठितीएसु उववज्जेज्जा । (४० २४।११० ) ८. पदोपमा भागग्रहणेन पूर्व कोटी पाह्मा, ( वृ० प० ८२० ) ९. यतः संमूच्छिमस्योत्कर्षतः पूर्व कोटीप्रमाणमायुर्भवति, ( वृ० प० ८२० ) १०. स चोत्कर्षतः स्वायुष्यमेव देवाध्नाति नातिरिक्त, ( वृ० प० ८२० ) १२. ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं केवतिया उववज्जंति ? एवं रयणप्पभागमगसरिसा नव वि गमा भाणियव्वा, १३. नवरं - जाहे अप्पणा जहणकालट्ठितीओ भवति ताहे अज्झवसाणा सत्था, नो अप्पसत्था तिसु वि गमएसु । अवसेसं तं चैव १-९ । ( श० २४ । ११८ ) १५. For Private & Personal Use Only वियतिरिक्जोणिहितो उयजति संवासउपसणपचिदियतिरिक्त्र - कि जोणिए हितो उववज्जंति ? असंखेज्जवासाउयसण्णिपंचिदियतिरिक्जोणितति ? www.jainelibrary.org
SR No.003622
Book TitleBhagavati Jod 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages360
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size18 MB
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