SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 45
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४५. सो चेव जहण्णकालद्वितीएस उववण्णो, सच्चेव वत्तव्वया जाव भवादेसो त्ति । ४६. कालादेसेणं जहण्णेणं कालादेसो वि तहेव जाव चरहिं पुव्वकोडीहिं अब्भहियाई, ४७. एवतियं काल सेवेज्जा, एवतियं कालं गतिरागति करेज्जा २। (श० २४१८२) ४८. सो चेव उक्कोसकालट्ठितीएसु उववण्णो, सच्चेव लद्धी जाव अणुबंधो त्ति। ओधिक ने जघन्य (२) ४५. तेहिज जघन्य काल स्थितिक विषे ऊपनों, वक्तव्यता सहु जाणी रे। लब्धि प्राप्ति कहिये विध सेती, जाव भवादेश लग माणी रे॥ वा०--तेहिज सन्नी तिथंच जघन्य काल स्थितिक नै विषे ऊपनों, इह वचने करी जघन्य थकी बावीस सागर नै विषे ऊपनों अनै उत्कृष्ट थकी पिण बावीस सागर नै विषे ऊपनों, इम जाणवो। अनै लद्धी प्रमुख नी सर्व ही वक्तव्यता जाणवी। ४६. काल आश्रयी जघन्य थको जे, कालादेश पिण धारो रे । तिणहिज रीते कहिवो यावत, अधिक पूर्व कोड़ च्यारो रे ।। ४७. एतलो काल सेवै ते जंतु, करै गति आगति इतो कालो रे । ओघिक नै वलि जघन्य गमक ए, दाख्यो द्वितीय दयालो रे॥ ओघिक में उत्कृष्ट (३) ४८. तेहिज उत्कृष्ट काल स्थितिक विषे ऊपनों, लब्धि सर्व ही लहियै रे । यावत ही अनुबंध लगै ए, भवादेश हिव कहिय रे॥ वा० तेहिज सन्नी तिर्यंच उत्कृष्ट काल स्थितिक नै विषे ऊपनों, इह वचने करी जघन्य थकी पिण ३३ सागर स्थितिक विषे ऊपनों, उत्कृष्ट थकी पिण ३३ सागर स्थितिक विषे ऊपनों, इम कहिवू । अनं सगली ही लद्धी यावत अनुबंध लग जाणवू । ४९. भव आश्रयी जघन्य थकी जे, तिण भव ग्रहण करेवो रे । प्रथम तृतीय भव तिर्यंच केरो, एक नारक भव लेवो रे ।। ५०. उत्कृष्ट भव पंच ग्रहण जे, मच्छ तणां भव तीनों रे । बे भव सप्तमी उत्कृष्ट आयु, हिव तसु न्याय सुचीनो रे ।। सोरठा ५१. मच्छ मरी ने जेह, तेतीस सागर सप्तमी। ऊपजी ने वलि तेह, मच्छ हुवै तीजे भवे ।। ५२. तुर्य भवे फुन जाय, उत्कृष्टी स्थिति सप्तमी। मच्छ पुनरपि थाय, उत्कृष्टा भव पंच इम।। ५३. सप्तमी नरक मझार, उत्कृष्टी स्थिति नै विषे । इम जावै बे वार,तीजी वार न ऊपजै ॥ ५४. *काल आश्रयी जघन्य थकी जे, नारक उदधि तेतीसो रे। अंतर्महत दोय अधिक पिण, बे भव मच्छ कहीसो रे ।। ५५. उत्कृष्ट छासठ सागर नारक, बे भव स्थिति उत्कृष्टो रे । कोड़ पूर्व त्रिण अधिक कहीजै, त्रिण मच्छ भव स्थिति जिष्ठो रे ॥ *लय: प्रभवो चोर चोरां ने समझावै ४९. भवादेसेणं जहण्णेणं तिण्णि भवग्गहणाई, ५०. उक्कोसेणं पंच भवग्गहणाई। 'उक्कोसेणं पंच भवग्गहणाई" ति त्रीणि मत्स्यभवग्रहणानि द्वे च नारकभवग्रहणे (३० प.८१४) ५३. अत एव वचनादुत्कृष्टस्थितिषु सप्तम्यां वारद्वय मेवोत्पद्यत इत्यवसीयते ३ (वृ० प० ८१४) ५४. कालादेसेणं जहण्णणं तेत्तीसं सागरोवमाइं दोहि अंतोमुहुत्तेहिं अब्भहियाई, ५५. उक्कोसेणं छावढेि सागरोवमाइ तिहिं पुवकोडीहिं अब्भहियाई, श० २४, उ०१, ढा०४१४ ३१ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003622
Book TitleBhagavati Jod 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages360
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy