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________________ ११२. शतक चउबीसम प्रथम देश ए, च्यारसी तेरमी ढालो। भिक्ष भारीमाल ऋषिराय प्रसादे, 'जय-जश' हरष विशालो ।। ढाल : ४१४ १. पर्याप्तकसंख्यातवर्षायुष्कसज्ञिपञ्चेन्द्रियतियंगयोनिकमाश्रित्यरत्नप्रभावक्तव्यतोक्ता, (वृ० प० ८१२) २. अथ तमेवाश्रित्य शर्कराप्रभावक्तव्यतोच्यते, तत्रौधिक औधिकेषु तावदुच्यते (व०प० ८१२) १. संख्यायु पर्याप्तो, सन्नी पं. तिथंच । रत्नप्रभा ने आश्रयी, पूर्वे आख्यो संच ।। हिवै सक्करप्रभा नै विषे पर्याप्त संख्यात वर्षायुष सन्नी पंचेंद्री तिर्यच ऊपज, तेहनां नव गमा कहै छै२. सक्करप्रभा नै विषे, तेहिज ऊपजै ताय । ओधिक नै ओधिक हिवै, प्रथम गमो कहिवाय ।। ___ ओधिक ने ओधिक [१] वा०-ओधिक नै ओधिक ते संख्यात वर्ष आयु पर्याप्तो सन्नी पंचेंद्री तिर्यंच जघन्य-उत्कृष्ट स्थिति नों धणी सक्करप्रभा में जघन्य-उत्कृष्ट स्थितिक नारकी में विषे ऊपजे ते माटे सन्नी तिथंच पंचेंद्री नी ओधिक, समच स्थितिक नारकी ने विषे पिण ओधिक ते समचे स्थितिक नै विषे ऊपजै-ए प्रथम गमक बखाणिय छै दूजी नरक में संख्याता वर्ष नों सन्नी तियंच पंचेंद्रिय ऊपज, तेहनों अधिकार' *सन्नि तिर्यंच सक्कर प्रमुख ऊपज ।। (ध्र वदं) ३. पर्याप्तो जे संख्यात वर्षायुष प्रभु ! सन्नी पंचेंद्री तियंचो रे । ऊपजवा जोग्य सक्करप्रभा में, नारकी नै विषे संचो रे ।। ४. किता काल स्थितिक विषे ते प्रभु ! ऊपजै? जिन कहै जघन्य थी इष्टो रे। एक सागर स्थितिक विषे ऊपजै, तीन सागर उत्कृष्टो रे ।। ५. ते एक समय प्रभु ! किता ऊपजै ? जिम रत्नप्रभा रै माह्यो रे। ऊपजतां ने बोल कह्या जे, परिमाण संघयणादि ताह्यो रे ।। ६. सक्करप्रभा विषे ऊपजतां नैं, कहियै सहु निविशेखो रे। यावत भव आदेश जघन्य बे, उत्कृष्ट अठ भव लेखो रे ।। ७. काल आश्रयी जघन्य सागर इक, नारक भव स्थिति कालो रे। ___ अंतर्मुहुर्त अधिक तिरि भव, बे भव अद्धा न्हालो रे ॥ *लय : प्रभवो चोर चोरां ने समझाव १. परि. २. यंत्र ४ ३. पज्जत्तसंखेज्जवासाउयसण्णिपंचिदियतिरिक्खजोणिए णं भंते ! जे भविए सक्करप्पभाए पुढवीए नेरइएसु उववज्जित्तए, ४. से णं भंते ! केवतिकालद्वितीएसु उववज्जेज्जा ? गोयमा ! जहण्णेणं सागरोवमद्वितीएसु, उक्कोसेणं तिसागरोवमट्ठितीएसु उववज्जेज्जा। (श० २४१७८) ५,६. ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं केवतिया उववज्जति? एवं जहेव रयणप्पभाए उववज्जंतगस्स लद्धी सच्चेव निरवसेसा भाणियव्वा जाव भवादेसो त्ति। 'पज्जत्ते' त्यादि, 'लद्धी सच्चेव निरवसेसा भाणियव्वा' परिमाणसंहननादीनां प्राप्तियैव रत्नप्रभायामुत्पित्सोरुक्ता सैव निरवशेषा शर्कराप्रभायामपि भणितव्येति, (व०प०८१३) ७. कालादेसेणं जहणणं सागरोवमं अंतोमुत्तमम्भहियं, श. २४, उ०१, ढा०४१४ २७ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003622
Book TitleBhagavati Jod 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages360
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size18 MB
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