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________________ वा०-एक पर्याप्तो असन्नी तिथंच पंचेंद्री नों भव अन दूजो नारकी नों भव-ए बे भव कह्या । पिण नरक थकी नीकल असन्नी पंचेंद्री तिथंच न हुदै, तिणसूं तीजो भव न कह्यो। १०१. काल आश्रयी जघन्य थी, वर्ष सहस्र दश जन्य हो। अंतर्मुहर्त अधिक ही, पंचम गमे काल जघन्य हो ।। १०२. काल थकी उत्कृष्ट पिण, वर्ष सहस्र दस तास हो। अंतर्मुहर्त अधिक ही, बिहं भव काल विमास हो ।। १०३. सेवै कालज एतलो, इतो काल गतागति होय हो। जघन्य अने वलि जघन्य ही, ए गमो पंचमो जोय हो ।। सोरठा १०४. जघन्य स्थिति पर्याप्त, असन्नी पं. तिथंच ए। धुर नरके पिण प्राप्त, जघन्य स्थिति नारकपणे ।। १०५. बिहुं भव स्थिति जघन्य, पंचम गमा विषे कही। ते माटै इहां जन्य, जघन्योत्कृष्टज तुल्य अद्धा ।। १०१. कालादेसेणं जहण्णेणं दसवाससहस्साई अंतोमुहुत्त मन्भहियाई। १०२. उक्कोसेण वि दसवाससहस्साई अंतोमुहुत्त मन्भहियाई। १०३. एवतियं कालं सेवेज्जा, एवतियं कालं गतिरागति करेज्जा ५। (श० २४०४१) - लेवव्या, याशिव का अविरमा जघन्य नै उत्कृष्ट [६] वा.--असन्नी तिर्यंच पंचेंद्री पर्याप्ता नों जघन्य आउखो अनै रत्नप्रभा नै विर्ष उत्कृष्ट आउखै ऊपजे, ते माटे जघन्य नै उत्कृष्ट-ए छठो गमक बखाणिय वा० एवं जघन्यस्थितिकं तमुत्कृष्टस्थितिषुतेषूत्पादयन्नाह (वृ.प. ८०९) १०६. *असन्नी पंचेंद्रि तिथंच पर्याप्तो, जघन्य आयवंत जेह हो । ऊपजवा जोग्य रत्नप्रभा विषे, स्थिति उत्कृष्ट नेरइयापणेह हो।। १०७. ते कितै काल स्थितिक विषे ऊपजे? जिन कहै जघन्य विमास हो। पल्य नों भाग असंख्यातमो, उत्कृष्ट पिण इतरो इज तास हो। १०६. जहण्णकालद्वितीयपज्जत्ताअसण्णिपंचिदियतिरिक्ख जोणिए णं भंते ! जे भविए उक्कोस कालद्वितीएस रयणप्पभापुढवि-नेरइएसु उववज्जित्तए। १०७. से णं भंते ! केवतियकालद्वितीएस उववज्जेज्जा ? गोयमा ! जहण्णेणं पलिओवमस्स असंखेज्जइभागद्वितीएस, उक्कोसेण वि पलिओवमस्स असंखेज्जइ भागट्ठितीएसु उववज्जेज्जा। __ (श. २४॥४२) १०८. ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं केवतिया उववज्जति ? अवसेसं तं चेव, ताई चेव तिण्णि नाणत्ताई। १०८. प्रभु ! एक समय किता ऊपजै ? अवशेष तिमज कहिवाय हो। पूर्ववत त्रिण णाणत्ता, आयु अनुबंध अध्यवसाय हो ।। कायसंवेध १०९. जाव हे प्रभु ! जघन्य स्थितिक तिको, पर्याप्त असन्नी पं. तिथंच हो । रत्नप्रभा उत्कृष्ट स्थिति नारके, आयु भोगवनें संच हो ।। ११०. वलि असन्नी पं. तिरि पर्याप्तो, कितो काल गतागति तास हो ? जिन भाखै भव आश्रयी, बे भव ग्रहण विमास हो। *लय : धिन-धिन जंबू स्वाम ने १०९,११०. जाव (श० २४।४३) से णं भंते ! जहण्णकालद्वितीयपज्जत्ताअसण्णिपंचिदियतिरिक्खजोणिए उक्कोसकालद्वितीयरयणप्पभाए जाव गतिरागति करेज्जा? गोयमा ! भवादेसेणं दो भवग्गहणाई। १४ भगवती जोड़ Jain Education Intermational Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003622
Book TitleBhagavati Jod 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages360
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size18 MB
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