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________________ १७१. एवतियं कालं सेवेज्जा, एवतियं कालं गतिरागति करेज्जा ३। १७२. एते चेव तिण्णि गमगा, सेसा न भण्णंति । सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति। (श० २४१३१४) १७३. सर्वार्थसिद्धिकदेवाधिकारे आद्या एव त्रयो गमा भवन्ति सर्वार्थसिद्धिकदेवानां (वृ०प० ८४६) १७४. जघन्यस्थितेरभावान्मध्यमं गमत्रयं न भवति उत्कृष्ट__ स्थितेरभावाच्चान्तिममिति। (वृ०५०८४६) १७१. सेवै कालज एतलो जी कांइ, ए गति-आगति काल । त्रिण गमा मांहे गमो जी कांइ, दाख्यो तृतीय दयाल जी काइ । १७२. एहिज तीन गमा हुवै जी काइ, शेष गमा न कहाय । सेवं भंते ! स्वाम जी ! कांइ, सत्य तुम्हारी वाय जी कांइ।। सोरठा १७३. वृत्ति विषे इम वाय, सवार्थसिद्ध नै विषे । आदि तीन गम पाय, षट गम शेष नहीं तिहां ।। १७४. जघन्य स्थिति नहिं थाय, इम मध्यम त्रिण गम नहीं । उत्कृष्ट स्थिती पिण नांय, इम त्रिण गम अंतिम नथी । वा०-इहां मनुष्य नै विषे ४३ ठिकाणां नों उपजे ते कहै छै–६ नारकी ३ स्थावर ते पृथ्वी, पाणी, वनस्पति, तीन विकलेंद्रिय, संख्याता वर्षायु सन्नी तिर्यच पंचेन्द्रिय, असन्नी तिर्यंच पंचेंद्रिय, संख्यात वर्षायु सन्नी मनुष्य, असन्नी मनुष्य, दश भवनपति, व्यंतर, जोतिषी, बार देवलोक, नव अवेयक, च्यार अनुत्तर विमान रो एक, सर्वार्थ सिद्ध रो एक-एवं ४३ । १७५. षट नारकि फुन देव, सव्वसिद्ध विण बीस षट । ए बत्तीसज हेव, ऊपजतां मनु दंडके ॥ १७६. जघन्य अने उत्कृष्ट, गमके बे-बे णाणत्ता। आयु तणोंज इष्ट, फुन अनुबन्ध तणों कह्यो । १७७. मही जल वनस्पतीह, विकलद्रिय तिरि-पं. मनु । सन्नी असन्नी ईह, ए दश मनु में ऊपजै ।। १७८. जघन्य गमे कहाय, पृथ्वी में चिहु णाणत्ता । अप में पिण चिहं पाय, वनस्पती में पंच फुन ।। १७९. त्रिण विकलेंद्रिय तेह, असन्नी तिरि ए स्थान चिहुं । मनुष्य विषे उपजेह, सात-सात तसु णाणता ।। १८०. सन्नी मनु तिरि तेह, ऊपजतां बे मनु विषे । णाणत्त नव-नव लेह, ए सहु आख्या जघन्य गम ।। १८१. पृथ्व्यादिक दश जाण, ऊपजतां मन में विषे । तुर्य गमे पहिछाण, अध्यवसाय बिहुँ कह्या ।। १८२. पंचम गम अपसत्थ, पसत्थ छठा गम विषे । श्री जिन वच अवितत्थ, मनुष्यायु पुन्य पाप है। १८३. उत्कृष्ट गमे कहाय, पृथ्व्यादिक सन्नी तिरि । ए नव मनु में आय, तेहनां बे-बे नाणत्ता ।। १८४. सन्नी मनुष्य छै जेह, ऊपजतां मनु ने विषे । उत्कृष्ट गमे कहेह, तीन णाणत्ता तेहनां ।। १८५. *चउवीसम इकवीसमों जी काइ, . च्यार सौ गुणतीसमी ढाल । भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी जी काइ, _ 'जय-जश' हरष विशाल जी कांइ।। चतुविशतितमशते एकविंशोहेशकार्थः ॥२४॥२१॥ *लय : म्हारी सासूजी रे पांच पुत्र काइ १८० भगवती जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003622
Book TitleBhagavati Jod 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages360
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size18 MB
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