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________________ मनुष्य में तीसरे स्यूं आठवें देवलोक तक नां देव अपने तेनों अधिकार' ९४. सनतकुमार विषेह, सात कियां चगुणी लेह, अष्टवीस सागर उत्कृष्ट स्थिति । सागर हुवै ॥ ९५. *महेंद्र सात जाभी कही जी कांड, चतुर्गुणी किंवा ताय । अष्टवीस सागर तिका जी कांड, जारी कहिवाय जी कांइ । ९६. ब्रह्म जेष्ठ दश उदधि नीं जी कांइ, चतुर्गुणी कियां ताय । चालीस सागर नीं हुवै जी कांइ, स्थिति उत्कृष्ट कहाय जी कांइ ॥ ९७. लंतक चवद उदधि तणीं जी कांइ, उत्कृष्टी स्थिति एह । चतुर्गुणी कीधा हुवे जी कांद, सागर छप्पन जेह जी कांइ ॥ ९८. महाशुक सतरोदधि जी कांइ, उत्कृष्ट भव स्थिति थाय । चतुर्गुणी कीधांतिका जी कोइ अड़सठ सागर आय जी कांइ ॥ ९९. अष्टम कल्प अठार नीं जी कांइ, उत्कृष्टी स्थिति होय । चतुर्गुणी कीधांतिका जी कांइ, उदधि महोत्तर जोव जी कांइ ॥ १००. ए उत्कृष्टी स्थिति कही जी कांइ, जघन्य स्थिति पिण तास । चतुर्गुणी करवी बली जी कांइ, वर जिन वचन विमास जी कांइ । सोरठा १०१. जदा जघन्य स्थिति जाण, चवी तृतीय कल्पादि थी । उपजे तेह पिछाण ओषिक आदिक मनु विषे ॥ १०२. जघन्य स्थिति अवलोय हुवे तदा ते सुर वणीं । तिका स्थित फुन जोय, तिमहिज करवी चउगुणी ॥ १०३ सतनकुमार आदि, जघन्य दोय सागर प्रमुख । कियां चउगुणी लाधि, अष्ट आदि सागर हुवै || वा० - जघन्य नैं अधिक, जघन्य नैं जघन्य, जघन्य ने उत्कृष्ट-- ए बिचले तीन गमे जघन्य स्थिति वाला सनतकुभारादिक अधिकादिक मनुष्य में ऊपजै । तेहनां जघन्य बे भव, उत्कृष्ट ८ भव करें तिहां सनतकुमारादिक जघन्य स्थिति नां ४ भव । तिहां जघन्य स्थिति नैं चउगुणी करणी प्रथम तीन गमे अने छेने तीन मे भव में सनत्कुमारादिक तुरनी उत्कृष्ट स्थिति में उगुणी करवी । मनुष्य में नौवें देवलोक नां देव ऊपर्ज, तेहनों अधिकार १०४. आणत सुरवर हे प्रभु! कांइ, मनुष्य विषेज कहेह । सुर ऊपजवा जोग्य छे जी कांइ, कितै काल स्थितिक उपजेह जी कांइ ? * लय : म्हारी सासूजी रे पांच पुत्र कांइ १. देखें परि. २ यंत्र १२७- १३२ २. देखें परि. २, यंत्र १३३ Jain Education International ९४. सनत्कुमारदेवानामष्टाविंशत्यादिसागरोपममाना भवति सप्तादिसागरोपमप्रमा णत्वात्तस्य इति; ( वृ० प० ८४५) ९५. माहिदे ताणि चैव सा तिरेगाणि, ९६. बीए पालीसं ९७. लंत छप्पन्नं, ९. महान अस ९९. सहस्सा रे बावर्त्तार सागरोत्रमाई । १००. एसा उक्कोसा ठिती भणिया । जहण्णट्ठिति पि गुणेा । (८० २४११०३) १०२. यदा अधिकादिमनुब्येषूत्पद्यते ( वृ० प० ८४५) १०२. तदा जन्यस्थितिर्भवति सा च तथैव चतुर्मुतिा (५० प० ८४५) १०३. कुमारादिसाररोपममाना भवति पादसागरो पममानत्वात्तस्या इति । ( वृ० प० ८४५) पुनर्जन्यस्थितिकदेवेभ्य १०४. आणदेवे भंते! जे भनिए मोनु उत्तिए से णं भंते! केवतिकालद्वितीएसु उववज्जेजा ? For Private & Personal Use Only श० २४, उ० २१, ढा० ४२९ १७३ www.jainelibrary.org
SR No.003622
Book TitleBhagavati Jod 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages360
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size18 MB
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