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________________ ६३. सेसं तं चेव निरवसेसं १-९। (श० २४।२९९) सोरठा ५९. 'षष्ठम गमके ताहि, जघन्य स्थितिक महि ऊपजे । ___ जेष्ठ स्थितिक मनु मांहि, अध्यवसाय भलाज तसुं॥ ६०. प्रशस्त अध्यवसाय, तिण करि बांध्यो आउखो। जेष्ठ स्थितिक मनु थाय, ए आयू पुन्य प्रकृति छै ।। ६१. पंचम षष्ठम पेख, ए बिहुं गम में न्याय करि । मनुष्यायु सुविशेख, प्रकृति पाप फुन पुन्य री।। ६२. जेह मनुष्य नों जोय, जघन्य आउखो पाप छै । उत्कृष्ट आयू होय, तेह पुन्य नी प्रकृति छै ।' [ज०स०] ६३. शेष संघयणादिक सहु जी कांइ, महि पं. तिरि ने मांय । ऊपजतां नै आखिया जी कांइ. तिमज इहां कहिवाय जी काइ। वा०-'पृथ्वी, पाणी, वनस्पति, तीन विकलेंद्रिय, असन्नी तियंच पंचेंद्रिय, संख्यात वर्षायु सन्नी तिथंच पंचेंद्रिय, संख्यात वर्षायु सन्नी मनुष्य--- ए ९ मनुष्य में ऊपजता नै छठे गमे प्रथम ३ लेश्या अन अध्यवसाय भला कह्या । ते भला अध्यवसाय में माठी लेश्या किम संभवै ? तेहर्नु उत्तर-ए ३ माठी लेण्या द्रव्य लेश्या संभवै, पिण अध्यवसाय रूप भाव लेश्या न संभव । अन उत्तराध्येन अध्येन ३४१३३ में लेश्या नां अध्यवसाय असंख कहा। तिहां अध्यवसाय रूप लेश्या कही, ए भाव लेण्या छ । तथा पन्नवणा पद १७ उद्देशे ३ सू. ११२ कृष्ण लेश्या में ४ ज्ञान कह्या । तिहां टीका में इम कह्यो-कृष्ण लेश्या नां अध्यवसाय नां स्थानक असंख्याता लोकाकाश प्रदेश प्रमाण छ। तिण माहिलो कोई मंद अध्यवसाय में मनपर्यव पाय जावै। इहा पिण अध्यवसाय रूप लेश्या कही, ते भाव लेण्या छ। ते मार्ट पृथव्यादि ९ मनुष्य में ऊपजतां ने छठे गमे अध्यवसाय भला कह्या, तिण में कृष्णादि ३ लेश्या अध्यवसाय रूप भाव लेश्या न संभव, द्रव्य लेश्या संभवै ।' (ज० स०) मनुष्य में अपकाय आदि ९ ठिकाणां ना ऊपजे, तेहनों अधिकार' ६४. इम अप मन में ऊपजे जी काइ, इमज वणस्सइकाय । एवं जाव चउरिद्रिया जी कांइ, ऊपजतां मनु मांय जी काइ।। ६५. असन्नी पंचेंद्रिय तिरि जी काइ, फुन सन्नी तिर्यंच । असन्नी मनुष्य सन्नी मनु जी काइ, ए सगलाई संच जी कांइ ।। वा०-इह लेश्यानां प्रत्येकासंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणान्यध्यवसायस्थानानि, तत्र कानिचित् मन्दानुभावान्यध्यवसायस्थानानि प्रमत्तसंयतस्यापि लभ्यन्ते, अत एव कृष्णनीलकापोतलेश्या अन्यत्र प्रमत्तसंयतान्ता गीयन्ते. मन:-पर्यवज्ञानं च प्रथमतोऽप्रमत्तसंयतस्योत्पद्यते ततः प्रमत्तसंयतस्यापि लभ्यते इति सम्भवति कृष्णलेश्याकस्यापि मनःपर्यवज्ञानम् । (प्रज्ञा० वृ• ५० ३५७) ६४. जइ आउक्काइए? एवं आउक्काइयाण वि। एवं वणस्सइकाइयाण वि । एवं जाव चारिदियाण वि। ६५. असण्णिपंचिदियतिरिक्खजोणिय-सण्णिपंचिदियतिरि जोणिय-असण्णिमणुस्स-सण्णिमणुस्सा य एते सव्वे वि ६६. जहा पंचिदियतिरिक्ख जोणियउद्देसए (२४१२४८ २८२) तहेव भाणियब्वा, ६६. जिम पं.-तिरि उद्देशके जी काइ, तिमहिज भणवो एह । ऊपजतां पं.-तिरि विषे जी कांइ, तिमहिज मनुष्य विषेह जी कांइ॥ ६७. णवरं एहिज निश्चै करी जी कांइ, एह तणों परिमाण । अध्यवसाय तणों वलि जी काइ, भेद नानापणुं जाण जी काइ। ६८. पृथ्वीकायिक नों कह्यो जी काइ, मनुष्य विषे उपपात । उद्देशक एहिज विषे जी काइ, ___तिम इहां पिण अवदात जी काइ । १. देखें परि. २, यंत्र ११२-१२० ६७. नवरं-एयाणि चेव परिमाण-अज्झवसाणनाणत्ताणि जाणिज्जा ६८. पुढविकाइयस्स एत्थ चेव उद्देसए भणियाणि। १७० भगवती जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003622
Book TitleBhagavati Jod 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages360
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size18 MB
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