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________________ ११,१२. 'उक्कोसेणं अट्ठ भवग्गहणाई' ति अनेनेदमव गम्यते-यथोत्कर्षतः पञ्चेन्द्रियतिरश्चो निरन्तरमष्टो भवा भवन्ति एवं समानभवान्तरिता अपि भवान्तरः सहाष्टव भवन्तीति, (वृ० प० ८२९) सोरठा ११. उत्कृष्टा भव अट्ठ, इण वचने इम जाणियै । ते पंचेंद्रिय प्रगट्ट, करै निरंतर अष्ट भव ।। १२. इमज सरीखा ख्यात, भव अंतरिता पिण जिके । भव अंतरित संघात, अष्ट इज भव इम वृत्तौ ।। वा०-जिम उत्तराध्ययन अध्ययन १० में तिर्यंच पंचेंद्रिय नां निरन्तर भव करै तो उत्कृष्टा ८ कह्या, तिम अष्ट भव-एक भव तिर्यंच पंचेंद्रिय नों, दूजो पृथ्वीकाय नों। तीजो तिर्यंच पंचेंद्रिय नों, चउथो पृथ्वीकाय नों। पांचमों तियंच पंचेद्री नों, छठो पृथ्यीकाय नों। सातमों पंचेंद्रिय नों, आठमों पृथ्वीकाय नोंइम भवांतरित पिण अष्ट भव जाणवू । इम न्याय वृत्तिकार का। इहां सूत्र में उत्कृष्ट आठ भव कह्या ते मारी। १३. *काल आश्रयी जघन्य थी रे, अंतर्महत बे धार रे। उत्कृष्ट कोड़ पूर्व चिउं रे लाल, वर्ष अठ्यासी हजार रे।। १३. कालादेसेणं जहण्णेणं दो अंतोमुहुत्ता, उक्कोसेणं चत्तारि पुवकोडीओ अट्ठासीतीए वाससहस्सेहि अब्भहियाओ, १४. एवतियं कालं सेवेज्जा, एवतियं कालं गतिरागति करेज्जा। १५. नवसु वि गभएसु कायसंवेहो-भवादेसेणं जहणेणं दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं अट्ठ भवग्गहणाई। १६. कालादेसेणं उवजुजिऊण भाणियव्वं, नवरं १७. मज्झिमएसु तिसु गमएसु जहेव बेइंदियस्स, १४. सेवै कालज एतलो रे, करै गति-आगति इतो काल रे। ओधिक नै ओधिक गमो रेलाल, दाख्यो प्रथम दयाल रे॥ १५. नव ही गमक विषे तसु रे, कायसंवेध सुघट्ट रे। जघन्य थकी भव दोय छै रे लाल, उत्कृष्टा भव अट्ठ रे ॥ १६. काल आश्रयी जेहनों रे, मन में उपयोगेह रे । । कहिवो सर्व विचार नै रे लाल, णवरं विशेष छै एह रे ।। १७. बिचला तोन गमा विषे रे, बेइंद्रिय नां जेम रे। जघन्य गम सत्त णाणत्ता रे लाल, दाख्या कहिवा तेम रे ।। १८. छहला तीन गमा विषे रे, जिम एहनांज विचार रे । । प्रथम गमा नै विषे कह्यो रे लाल, कहिव तिमज प्रकार रे।। १९. णवरं इतरा विशेष छै रे, स्थिति अनै अनुबंध रे । जघन्य अने उत्कृष्ट थी रे लाल, पूर्व कोड़ज संध रे॥ २०. शेष तिमज कहिवो सह रे, यावत नवमे गमेह रे। । काल थकी सूत्रे कह्यो रे लाल, आगल कहिस्यै जेह रे ।। इति प्रथम गमा नों कायसवेध तो सूत्रे पूर्वे कह्यज छ । अन शेष आठ गमा नै विषे कायसंवेध उपयोगे करी जओ-जओ कहिवो, ते लिखियै छै १८. पच्छिल्लएसु तिसु गमएसु जहा एतस्स चेव पढमगमएसु, १९. नवरं-ठिती अणुबंधो य जहण्णेणं पुव्वकोडी, उक्कोसेण वि पुवकोडी। २०. सेसं तं चेव जाव नवमगमएसु सोरठा २१,२२. द्वितीये तूत्कृष्टोऽसौ चतस्रः पूर्वकोटयश्चतुभिरन्तर्मुहत्तरधिकः, (व०प०८२९) २१. द्वितीय गमे संवेह, बे भव अद्धा जघन्य थी। अंतर्महत बेह, ए पिण बिहुं भव जघन्य स्थिति ।। २२. उत्कृष्टो अवधार, अद्धा अष्ट भवां तणों। पूर्व कोड़ज च्यार, अंतर्महत चिउ अधिक ॥ २३. तीजे गमे संवेह, बे भव अद्धा जघन्य थी। अंतर्महत जेह, वर्ष सहस्र बावीस फुन । २४. उत्कृष्टो अवधार, अद्धा अष्ट भवां तणों। पूर्व कोड़ज च्यार, वर्ष अठ्यासी सहस्र वली। *लय : धीज कर सीता सीत रे लाल २३,२४. तृतीये तु ता एवाष्टाशीत्या वर्षसहस्ररधिकाः, (वृ० ५० ५२९) १०२ भगवती जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003622
Book TitleBhagavati Jod 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages360
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size18 MB
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