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मोढगच्छ
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उल्लेख है । पुरातनप्रबन्धसंग्रह के अनुसार वलभी के नगर देवता द्वारा वलभी भंग के समय वर्धमानसूरि को निर्देश दिया गया था कि साधुओं को जहां भिक्षा में प्राप्त क्षीर रुधिर हो जाये और फिर रुधिर से पुनः क्षीर हो जाये, वहीं उन्हें ठहर जाना चाहिए । इस प्रकार वे मोढेर में ठहरे । १
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पाटला स्थित मोढचैत्य भी मोढेरा के महावीर - जिनालय की भांति ही प्राचीन रहा है । १२ यह जिनालय नेमिनाथ को समर्पित था । प्रभावकचरित के अनुसार यह चैत्य सिद्धसेनसूरि के आधिपत्य में था । १३ अचलगच्छीय महेन्द्रसूरि द्वारा रचित अष्टोत्तरीतीर्थमाला [ रचनाकाल - वि० सं० १२८७] के अनुसार कन्नौज के राजा आम ने इस जिनालय का निर्माण कराया था । वि० सं० १३६७ / ई० सन् १३११ में शंखेश्वरपार्श्वनाथ की यात्रा को जाते हुए खरतरगच्छीय आचार्य जिनचन्द्रसूरि 'द्वितीय' यहां पधारे थे । १५ वि० सं० १३७१ / ई० सन् १३१५ में आदिनाथ जिनालय के जीर्णोद्धार से लौटते हुए समराशाह शंखेश्वर और मांडली के साथ यहां भी दर्शनार्थ आये थे । १६ जिनप्रभसूरि ने कल्पप्रदीप के ८४ तीर्थस्थानों की सूची में इस तीर्थ का उल्लेख किया है और यहां नेमिनाथ जिनालय होने की बात कही है । गुजरात पर मुस्लिम आक्रमण के समय यहां स्थित जिनालय को भी क्षति उठानी पड़ी किन्तु खरतरगच्छीय अनुयायियों तथा समराशाह में यहां आने के पूर्व ही वह पुन: अपने प्राचीन गौरव को प्राप्त कर चुका था । १८ खरतरगच्छीय विनयप्रभसूरि [ई० सन् १३७५ ] और रत्नाकरगच्छीय जिनतिलकसूरि [ई० सन् १५वीं शती का अंतिम चरण ] ने भी यहां स्थित नेमिनाथ जिनालय का उल्लेख किया है ।
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मोढज्ञाति का तीसरा चैत्य धंधूका में था जो मोढसहिका के नाम से जाना जाता था । पूर्णतल्लगच्छीय आचार्य देवचन्द्रसूरि की अपने भावी शिष्य चांगदेव [हेमचन्द्राचार्य ] से यहीं भेंट हुई थी । आख्यानकमणिकोश [ रचनाकाल वि० सं० १२ वी शती / ई० सन् ११-१२ वी शर्ती ]
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