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________________ ५०० जैन श्वेताम्बर गच्छों का संक्षिप्त इतिहास यह कब अस्तित्व में आयी, इस बारे में कोई विवरण प्राप्त नहीं होता। चैत्रगच्छ तथा उसकी किसी शाखा का उल्लेख करनेवाला अंतिम साक्ष्य होने से महत्त्वपूर्ण है। ऐसा प्रतीत होता है कि भर्तृपुर (भटेवर), थारापद्र (थराद) और सलषणपुर में चैत्रगच्छ के उपाश्रय बन जाने पर वहां क चैत्रगच्छीय आचार्यों के साथ उक्त स्थानवाचक विशेषण जोड़ा जाने लगा होगा । इनमें से सलषणपुरा शाखा का अस्तित्व तो अल्पकाल में ही समाप्त हो गया किन्तु भर्तृपुरीय और थारापद्रीयशाखा का लगभग २०० वर्षों तक अस्तित्व बना रहा। निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि यह गच्छ ईस्वी सन् की १२वीं शती के प्रारम्भ में अस्तित्व में आया और १८वीं शती के प्रथम चरण तक विद्यमान रहा । लगभग ६०० वर्षों के लम्बे इतिहास में इस गच्छ के मुनिजनों ने (गुणाकरसूरि, चारुचन्द्रसूरि आदि को छोड़कर)न तो स्वयं कोई ग्रन्थ लिखा और न ही किन्ही ग्रन्थों की प्रतिलिपि करायी, बल्कि प्रतिमा प्रतिष्ठापक के रूप अपनी भूमिका निभाते रहे । धनेश्वरसूरि, भुवनचन्द्रसूरि, देवभद्रसूरि और जगच्चन्द्रसूरि तथा रत्नप्रभसूरि (घाघसा और चीरवा अभिलेखों के रचनाकार) को छोड़कर इस गच्छ में ऐसा कोई प्रभावक आचार्य भी नहीं हुआ, जो श्वेताम्बर श्रमण परम्परा में विशिष्ट स्थान प्राप्त कर सकता। ई. सन् की १८वीं शताब्दी के प्रथम चरण के बाद इस गच्छ से सम्बद्ध साक्ष्यों के अभाव से यह सुनिश्चित है कि इस समय के बाद इस गच्छ का स्वतंत्र अस्तित्व समाप्त हो गया होगा और इस गच्छ अनुयायी किन्ही अन्य गच्छों में सम्मिलित हो गये होंगे। संदर्भ सूची: P.K. Gode, “References to Caitragaccha in Inscriptions and Literature", Studies in Indian Literary History, Vol. I, Singhi Jain Series, No. 37, Bombay 1953 A.D. p. 5. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003614
Book TitleJain Shwetambar Gaccho ka Sankshipta Itihas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherOmkarsuri Gyanmandir Surat
Publication Year2009
Total Pages714
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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