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जैन श्वेताम्बर गच्छों का संक्षिप्त इतिहास नवपदप्रकरण के कर्ता देवगुप्तसूरि के शिष्य कक्कसूरि और वि०सं० १०७८/ई. सन् १०२१ के प्रतिमालेख में उल्लिखित कक्कसूरि को समसामयिक होने से एक ही आचार्य मानने में कोई बाधा उपस्थित नहीं होती है, इसी प्रकार देवगुप्तसूरि 'द्वितीय' के शिष्य लघुक्षेत्रसमास (रचनाकाल वि०सं० ११९२/ई० सन् ११३५) के रचनाकार सिद्धसूरि और वि० सं० १२०३/ई. सन् ११४६ के प्रतिमालेख में उल्लिखित सिद्धसूरि को एक दूसरे से अभिन्न माना जा सकता है, क्योंकि इस समय तक उपकेशगच्छ में कोई विभाजन दृष्टिगोचर नहीं होता है।
पट्टावली नं. १ के अनुसार सिद्धसूरि के पट्टधर कक्कसूरि ने चौलुक्यनरेश कुमारपाल (वि०सं० ११९९-१२३०) के समय अपने गच्छ के क्रियाहीन मुनिजनों को गच्छ से निष्कासित कर दिया था। उक्त कक्कसूरि को वि० सं० ११७२-१२१२ के प्रतिमालेखों में उल्लिखित ककुदाचार्य से अभिन्न माना जा सकता है।
ऐसा प्रतीत होता है कि कक्कसूरि ने अपने साथ के जिन मुनिजनों को गच्छ से निष्कासित कर दिया था, उन्हीं से गच्छभेद प्रारम्भ हुआ । सम्भवतः इन्हीं मुनिजनों ने स्वयं को सिद्धाचार्यसन्तानीय कहना प्रारम्भ कर दिया और इसके परिणामस्वरूप कक्कसूरि के शिष्य ककुदाचार्यसंतानीय कहलाये।
१३वीं शती तक के साहित्यिक और अभिलेखीय साक्ष्यों के आधार पर उपकेशगच्छीय मुनिजनों की गुरु-शिष्य परम्परा का क्रम इस प्रकार निर्मित होता है - तालिका - १
कक्कसूरि
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