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जावड़कथा भक्तामरस्तोत्रमाहात्म्य पंचवर्गसंग्रहनाममाला
उणादिनाममाला १३- अष्टकर्मविपाक
वि० सं० १४९९ में रचित विक्रमादित्यचरित्र २ और वि० सं० १५०९ में रचित भरतेश्वरबाहुबलिवृत्ति में रचनाकार स्वयं को मुनिसुन्दरसूरि का शिष्य बताते हैं
मुनिसुन्दरसूरीशविनेयः शुभशीलभाक् । चकार विक्रमादित्य-चरित्रं मन्दधीरपि ।।
(विक्रमादित्यचरित्र-प्रशस्ति-१२) प्रबन्धपंचशती के द्वितीय अधिकार के अन्त में इन्होंने स्वयं को लक्ष्मीसागरसूरि का शिष्य कहा है. जबकि ग्रन्थ की समाप्ति की प्रशस्ति में रत्नमंडन का शिष्य बतलाया है :
इति श्रीसोमसुन्दरसूरि पट्टालङ्करण श्रीमुनिसुन्दरसूरिः श्रीजयचन्द्रसूरि पट्टालङ्करण श्री रत्नशेखरसूरि पट्टालङ्करण श्रीलक्ष्मीसागरसूरि श्री सोमदेवसूरि श्रीरत्नमंडनसूरिशिष्य पं० शुभशीलगणि विरचित (प्रबन्ध) पंचशतीसम्बन्धे चतुर्थोऽधिकारः समाप्तः।।।
शुभशीलगणि सोमसुन्दरसूरि के विशाल शिष्य-प्रशिष्य परिवार के एक सदस्य थे। अपने लम्बे जीवनकाल में ये मुनिसुन्दरसूरि, रत्नशेखरसूरि, लक्ष्मीसागरसूरि आदि के आज्ञानुवर्ती थे। इसीलिये इन्होंने अपनी विभिन्न रचनाओं में, जो विभिन्न गच्छनायकों के समय में रची गयीं, स्वयं को कहीं मुनिसुन्दरसूरि का, कहीं रत्नशेखरसूरि का और कहीं लक्ष्मीसागरसूरि का शिष्य बतलाया गया है। वस्तुत: ये उनके शिष्य नही वरन् आज्ञानुवर्ती थे और सोमसुन्दरसूरि के शिष्य सोमदेवसूरि के प्रशिष्य और रत्नमंडन के शिष्य थे, जैसा कि प्रबन्धपंचशती की प्रशस्ति में ऊपर हम देख चुके हैं।
सुधानन्दन, रत्नमंडनगणि, शुभरत्नगणि, सोमजय, जिनसोम, जिनहंस, सुमतिसुन्दर, सुमतिसाधुसूरि, इन्द्रनंदि आदि को लक्ष्मीसागरसूरि ने ही आचार्य पद तथा अनेक मुनिजनों को उपाध्याय और वाचक पद प्रदान किया था।
आचार्य लक्ष्मीसागरसूरि ने गुर्जर, मरु और मालव प्रदेशों के तपागच्छीय श्रावकों द्वारा हजारों की संख्या में निर्मित जिनबिम्बों की प्रतिष्ठायें की, जिनमें से बड़ी संख्या में आज भी सलेख जिन प्रतिमायें प्राप्त होती हैं। ये वि० सं० १५१३ से लेकर वि० सं० १५३६ तक की हैं। इनका विस्तृत विवरण तालिका के रुप में प्रस्तुत है ....
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