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________________ जगवल्लभ पार्श्वनाथ देरासर, नीशापोल, अहमदाबाद में संरक्षित भगवान् पार्श्वनाथ की धातु की एक प्रतिमा पर उत्कीर्ण वि० सं० १५१३ पौष सुदि १० बुधवार के लेख में प्रतिमाप्रतिष्ठापक के रूप में रत्नशेखरसूरि के शिष्य गुणदेव का नाम मिलता है। लूणवसही के गूढमंडप में उत्कीर्ण वि०सं० १५१५ माघ वदि ८ के एक शिलालेख में आचार्य रत्नशेखरसूरि तथा उनके आज्ञानुवर्ती उदयनंदि, लक्ष्मीसागरसूरि, हेमदेव आदि मुनिजनों का उल्लेख है। आदिनाथ जिनालय, मालपुरा में संरक्षित वासुपूज्य पंचतीर्थी पर वि०सं० १५१७ का एक लेख" उत्कीर्ण है। इस लेख में रत्नशेखरसूरि के साथ धर्मसागरसूरि का भी नाम मिलता है। ये धर्मसागरसूरि कौन थे? रत्नशेखरसूरि के साथ उनका क्या सम्बन्ध था, इस बारे में न तो उक्त प्रतिमालेख से और न ही किन्हीं अन्य साक्ष्यों से कोई जानकारी प्राप्त होती है। विभिन्न साहित्यिक साक्ष्यों से रत्नशेखरसूरि की शिष्य सन्तति के बारे में जानकारी प्राप्त होती है। वि०सं० १५१३ में पिण्डविशुद्धिबालावबोध और वि०सं० १५१४ में आवश्यकपीठिका पर बालावबोध के रचनाकार संवेगदेवगणि ने अपनी कृतियों में इन्हें गुरु के रूप में स्मरण किया है। वि० सं० १५०७ में रची गयी सम्यकत्त्वरास की प्रशस्ति में रचनाकार संघकलशगणि ने स्वयं को उदयनंदि का शिष्य और रत्नशेखरसूरि का प्रशिष्य कहा है: रत्नशेखरसूरि उदयनंदि संघकलशगणि (वि०सं० १५०७/ई० स० १४५१ में सम्यकत्त्वरास के रचनाकार) वि०सं० १५०४ में कथामहोदधि के रचनाकार एवं सोमसुन्दरसूरि के शिष्य सोमदेवसूरि भी रत्नशेखरसूरि के आज्ञानुवर्ती थे। राणकपुर में संघपति धरणशाह द्वारा आयोजित उत्सव में रत्नशेखरसूरि ने इन्हें आचार्य पद प्रदान किया। समतिसाधू द्वारा रचित सोमसौभाग्यकाव्य'२ और सोमदेवसूरि के प्रशिष्य एवं चारित्रहंसगणि के शिष्य सोमचारित्रगणि द्वारा वि०सं० १५४१/ई०स० १४८५ में रचित गुरुगुणरत्नाकरकाव्य से यह जानकारी प्राप्त होती है। सोमदेवसूरि की शिष्य-संतति से आगे चलकर तपागच्छ की कमलकलशशाखा और कुतुबपुराशाखा अस्तित्त्व में आयी।। रत्नशेखरसूरि के एक शिष्य नंदिरत्न हुए, जिनके शिष्य रत्नमंदिरगणि ने वि०सं० १५१७ में भोजप्रबन्ध की रचना की। इनके द्वारा रचित उपदेशतरंगिणी, नेमिनाथफाग, नारीनिराशफाग आदि कृतियाँ भी मिलती हैं। श्री देसाई१६ ने नंदिरत्नगणि के शिष्य रत्नमंदिरगणि और सोमदेवसूरि के शिष्य रत्नमंडनगणि को एक ही व्यक्ति माना है जो भ्रामक है। वस्तुत: दोनों अलग-अलग व्यक्ति हैं। श्री कापडिया ने भी दोनों को अलग-अलग व्यक्ति और परस्पर गुरुभ्राता बताया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003611
Book TitleTapagaccha ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2000
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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