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भावरत्नसूरि
नयरत्न (वि०सं० १७६०/ई०स० १७०४ में चन्द्रमुनिरास
के प्रतिलिपिकार) वि० सं० १७६१/ई०स० १७०५ में लिखी गयी रघुवंशकाव्यवृत्ति के प्रतिलिपिकार भावरत्नसूरि और राजविजयसूरिशाखा के आचार्य भावरत्नसूरि को समसामयिकता, गच्छसाम्य, नामसाम्य आदि बातों को देखते हुए एक ही व्यक्ति सिद्ध होते हैं।
वि०सं० १७७३/ई०स० १७१७ में लिखीगयी प्रतिक्रमणभाष्य की प्रशस्ति में प्रतिलिपिकार तेजरत्न ने स्वयं को हीररत्नसूरि का प्रशिष्य और धनरत्न का शिष्य कहा है१६.
हीररत्नसूरि
धनरत्न
तेजरत्न (वि०सं० १७७३/ई०स० १७१७ में प्रतिक्रमणभाष्य
के प्रतिलिपिकार) वि०सं० १७७३/ई०स० १७१७ में ही लिखीगयी साधुप्रतिक्रमणबालावबोध की प्रशस्ति में प्रतिलिपिकार के रूप में उक्त तेजरत्न के शिष्य सुबुद्धिरत्न का नाम मिलता है।
भावरत्नसूरि की परम्परा में हुए कनकरत्न द्वारा वि० सं० १७९४/ई०स० १७३८ में लिखी गयी नर्मदासुन्दरीनोरास की प्रति उपलब्ध हुई है। इसकी प्रशस्ति में प्रतिलिपिकार ने अपनी गुरु-परम्परा दी है, जो इस प्रकार है :
भावरत्नसूरि
महोपाध्याय पंडित शांतिरत्न
पंडित हस्तिरत्न
पंडित कनकरत्न (वि०सं० १७९४ में नर्मदासुन्दरीनोरास के
प्रतिलिपिकार) वि०सं० १७९५/ई०स०१७३९ में लिखी गयी पंचाख्यान की प्रशस्ति१९ में प्रतिलिपिकार तिलकरत्न ने स्वयं को हीररत्नसूरि की परम्परा को बतलाते हुए अपनी गुरुपरम्परा निम्नानुसार दी है :
हीररत्नसूरि
लब्धिरत्न
हेमरत्न
तिलकरत्न (वि०सं० १७९५/ई०स० १७३९ में पंचाख्यान
के प्रतिलिपिकार)
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