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है। इसमें राजविजयसूरि से लेकर अंतिम पट्टधर भाग्यरत्नसूरि तक का नाम मिलता है। इसके रचनाकार कौन हैं! यह कब और कहां रची गयी है, इस बारे में कोई सूचना नहीं मिलती। फिर भी इस शाखा के मुनिजनों की नामावली और उनसे सम्बद्ध तिथियों की जानकारी के लिये यह एक महत्त्वपूर्ण साक्ष्य है। इस शाखा से सम्बद्ध अभिलेखीय साक्ष्यों का नितान्त अभाव है, अतः उदयरत्न द्वारा रचित भावरत्नसूरिप्रमुखपांचपाटवर्णनगच्छपरम्परारास, ग्रन्थप्रशस्तियां और पुस्तकप्रशस्तियां एवं इस शाखा की एकमात्र उपलब्ध पट्टावली, जिसका ऊपर उल्लेख आ चुका है, को तपागच्छ की इस शाखा के इतिहास के अध्ययन का आधार बनाया गया है।
मोहनलाल दलीचंद देसाई और मुनि कल्याणविजय जी ने इस शाखा की पट्टावली का सार दिया है जिसके अनुसार इससे सम्बद्ध आचार्यों का क्रम इस प्रकार है : राजविजयसूरि ( रत्नशाखा के आदिपुरुष)
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रत्नविजयसूरि (वि०सं० १६२४ में सूरि पद; वि०सं० १६७५ में निधन )
हीररत्नसूरि (वि० सं० १६६१ में आचार्य पद, वि०सं० १६७५ में भट्टारकपद; वि०सं० १७१५ में स्वर्गस्थ )
जयरत्नसूर
भावरत्नसूर
दानरत्नसूर
(वि० सं० १६९९ में राजनगर में आचार्यपद; वि०सं० १७१५ में भट्टारकपद; वि०सं० १७३४में स्वर्गस्थ )
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(वि० सं० १७३४ में भट्टारकपद; वि०सं० १७७२ में स्वर्गस्थ )
(वि० सं० १७७२ में भट्टारकपद; वि०सं० १८२४ में स्वर्गस्थ )
कीर्तिरत्नसूरि
I
मुक्तिरत्नसूरि
(वि०सं० १८७४ में सूरिपद; वि०सं० १८७६ में निधन )
I
पुण्योदयरत्नसूरि (विसं० १८७६ में सूरिपद, वि०सं० १८९० में स्वर्गस्थ )
T
अमृतरत्नसूरि (विसं० १८९० में सूरिपद)
चन्द्रोदयरत्नसूरि
1
सुमतिरत्नसूर
भाग्यरत्नसूरि
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