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कतिपय रचित और प्रतिलिपि की गयी विभिन्न ग्रन्थों की प्रतियों की प्रशस्तियों में इनका सादर उल्लेख मिलता है।
विजयाणंदसूरि के प्रशिष्य तेजविजय ने वि०सं० १६८२/ई०स० १६२६ में शांतिनाथस्तव५ की रचना की। कृति के अन्त में उन्होंने अपने गुरु-प्रगुरु का सादर उल्लेख किया है :
विजयाणंदसूरि
विजयविबुध
तेजविजय (वि०सं० १६८२/ई०स० १६२६ में शांतिनाथस्तव के
रचनाकार) वि०सं० १६८६/ई०स० १६३० में विजयाणंदसूरि के एक श्रावक शिष्य वाना ने जयानन्दरास१६ की रचना की। कृति के अन्त में रचनाकार ने अपने गुरु का सादर स्मरण किया है।
परिशिष्टपर्व की वि० सं० १६९६/ई०स० १६३७ की लिखी गयी प्रति की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि इसके प्रतिलिपिकार कनकविजय, शांतिविजय, शिवविजय आदि विजयाणंदसरि के शिष्य थे। इन्होंने स्वपठनार्थ उक्त कृति की प्रतिलिपि की थी।
शांतिविजय के शिष्य मानविजय हुए जिनके द्वाग रचित विभिन्न कृतियां मिलती हैं। १७५ इनका विवरण इस प्रकार है : १. भवभावना बालावबोध (वि० सं० १७२५) २. सुमतिकुमारस्तव (वि० सं० १७२८ के आसपास)
गुरुतत्त्वप्रकाश (वि० सं० १७३१) धर्मसंग्रह
(वि०सं० १७३१) उत्तराध्ययनबालावबोध (वि० सं० १७४१) नयविचाररास चौबीसी चौबीस जिननमस्कार
सिद्धचक्रस्तवन १०. गुणस्थानगर्भित शांतिनाथविज्ञप्तिरूपस्तव ११. आठमदसज्झाय १२. श्रावकना २१ गुणसज्झाय १३. श्रावकबारव्रत सज्झाय
वि०सं० १६९८ के तीन प्रतिमालेखों में मानविजय को विजयाणंदसूरि के शिष्य के रूप में दर्शाया गया है जबकि अपनी विभिन्न कृतियों की प्रशस्तियों में मानविजय ने स्वयं को विजयाणंदसूरि का प्रशिष्य और शांतिविजय का शिष्य बताया है:
विजयाणंदसूरि
voie
शांतिविजय
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