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________________ तपागच्छ-सागरशाखा तपागच्छ से समय-समय पर विभिन्न कारणों से अस्तित्त्व में आये विभिन्न उपशाखाओं में सागरशाखा भी एक है। तपागच्छीय उपाध्याय धर्मसागरगणि के प्रशिष्य और लब्धिसागर के शिष्य मुक्तिसागरगणि जो बाद में राजसागरसूरि के नाम से प्रसिद्ध हुए, से वि० सं० १६८६ में यह शाखा अस्तित्त्व में आयी। राजसागरसूरि को आचार्य पद दिलवाने में अहमदाबाद के राजमान्य जैन श्रावक श्रेष्ठी शांतिदास झवेरी की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। तपागच्छ की यह शाखा सागरशाखा के नाम से प्रसिद्ध हुई। इस शाखा में वृद्धिसागरसूरि, लक्ष्मीसागरसूरि, विनयसागर, कल्याणसागरसूरि, दयासागर, तिलकसागर, हेमसौभाग्य, शांतसौभाग्य, पुण्यसागरसूरि, उद्योतसागर, उदयसागर, आनन्दसागरसूरि, शांतिसागरसूरि आदि विभिन्न विद्वान मुनिजन हो चुके हैं। तपागच्छ की इस शाखा के इतिहास के अध्ययन के लिये इससे सम्बद्ध विभिन्न मुनिजनों की कृतियों की प्रशस्तियों के साथ-साथ राजसागरसूरि, वृद्धिसागरसूरि और कल्याणसागरसूरि पर रचित निर्वाणरास भी उपलब्ध हुए हैं जिनसे गच्छ के इतिहास की महत्त्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है। इसके अलावा इस गच्छ की एक पट्टावली भी मिलती है जिसका संक्षिप्तसार गुजराती भाषा में श्री मोहनलाल दलीचंद देसाई और हिन्दी भाषा में मुनि कल्याणविजयजी ने दिया है। इस गच्छ से सम्बद्ध कुछ अभिलेखीय साक्ष्य भी प्राप्त हुए हैं। यहाँ उक्त सभी साक्ष्यों के आधार पर तपागच्छ की इस शाखा के इतिहास पर प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है : सागरशाखा की पट्टावली में प्रस्तुत गुरु-परम्परा को एक तालिका के रूप में इस प्रकार दर्शाया जा सकता है : (उपाध्याय धर्मसागरगणि) (लब्धिसागर) मुक्तिसागरगणि अपरनाम राजसागरसूरि (वि० सं० १६८६/ई०स० १६३० में । सागरशाखा के प्रवर्तक; वि०सं० १७२१ में मृत्यु) । वृद्धिसागरसूरि (वि०सं० १६ में सूरिपद प्राप्त; वि० सं० १७२ में । गच्छनायक; वि०सं० १७४७ में मृत्यु) लक्ष्मीसागरसूरि (वि०सं० १७४५ में सूरिपद प्राप्त; १७८८ में स्वर्गस्थ) कल्याणसागरसूरि (वि०सं० १७८८ में सूरिपद प्राप्त; वि०सं० १८११ । में स्वर्गस्थ) पुण्यसागरसूरि (वि०सं० १८०८ में सूरिपद प्राप्त; वि०सं० । में जिनप्रतिमा व गुरु की चरणपादुका के प्रतिष्ठापक) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003611
Book TitleTapagaccha ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2000
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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