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पं० सोमधर्मगणि
पं० सोमशीलगणि (वि०सं० १५९०/ई०स० १५३४ मे
पर्यन्ताराधना के प्रतिलिपिकार) पं० सोमशीलगणि के प्रगुरु पं० साधुसुन्दरगणि द्वारा वि०सं० १५४८ में लिखी गयी उत्तराध्ययनसूत्र की चर्चा ऊपर की जा चुकी है।
वि०सं० १५४८/ई० स० १४९२ में सारशिखामणरास के रचनाकार संवेगसुन्दर भी इसी शाखा से सम्बद्ध थे। श्रीमोहनलाल दलीलचंद देसाई ने इनकी गुरु-परम्परा दी है, जो इस प्रकार है :
जयशेखरसूरि
जिनसुन्दरसूरि
जिनरत्नसूरि
जयसुन्दर
संवेगसुन्दर (वि०सं० १५४८ में सारशिखामणरास के
रचनाकार) जैसा कि पूर्व में विभिन्न साक्ष्यों में हम देख चुके हैं जयशेखरसूरि के पट्टधर के रूप में जिनरत्नसूरि का नाम मिलता है न कि जिनसुन्दरसूरि का ; अत: सारशिखरमाणरास के प्रशस्तिगत विवरण को स्वीकार करते हुए जिनरत्नसूरि को जिनसुन्दरसूरि का गुरु मानना उचित प्रतीत होता है। इस प्रकार उक्त प्रशस्तिगत गुरु परम्परा की तालिका को इस प्रकर रखा जा सकता है : जयशेखासूरि - जिनरत्नसूरि - जिनसुन्दरसूरि - जयसुन्दर - संवेगसुन्दर ।
वि०सं० १५२९ के एक प्रतिमालेख में भी संवेगसुन्दर का नाम मिलता है।
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