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________________ १५० विजयदानसूरि के एक शिष्य राजविजयसूरि से तपागच्छ की रत्नशाखा का प्रादुर्भाव हुआ, जबकि दूसरे शिष्य हीरविजयसूरि से तपागच्छ की मूल परम्परा आगे चली । जिस प्रकार चौलुक्यनरेश जयसिंह सिद्धराज और कुमारपाल पर आचार्य हेमचन्द्रसूरि का और मुहम्मद तुगलक पर आचार्य जिनप्रभसूरि का प्रभाव था ठीक उसी प्रकार १७वीं शताब्दी में सम्राट अकबर पर हीरविजयसूरि का था। इन्होंने सम्राट को प्रभावित कर धर्म की प्रभावना में महान् योगदान दिया। हीरविजयसूरि तपागच्छ के सर्वाधिक महान् पुरुष थे। इनके जीवन के बारे में अनेक रचनायें प्राप्त होती हैं, जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं : १. वि०सं० १६४६ २. जगद्गुरुकाव्य" तपागच्छपट्टावली कृपारसकोश हीरसौभाग्यकाव्य ६८ दयाकुशल लाभोदयरास हीरविजयसूरिनिर्वाणसज्झाय विवेकहर्ष हीरविजयसूरिशलोको ? कुंवरविजय हीरविजयसूरिशलोको २ विद्यानन्द हीरविजयसूरिपुण्यखानि ३ जयविजय हीरविजयसूरिरास ४ ऋषभदास वि०सं० १६८५ विजय द्वारा रचित विजयप्रशस्तिकाव्य (वि०सं० १६८१) एवं इस पर गुणविजय द्वारा वि०सं० १६८८ में रचित टीका हीरविजयसूरि के बारे में विवरण प्राप्त होता है। तथा अन्य कई ग्रन्थों में प्रसंगवश हीरविजयसूरि का जन्म वि०सं० १५८३ में हुआ था। वि० सं० १५९६ में पाटण में इन्होंने विजयदानसूरि से दीक्षा ग्रहण की। वि० सं० १६१० में इन्हें सूरि पद प्राप्त हुआ और वि०सं० १६२२ में विजयदानसूरि के निधन के पश्चात् उनके पट्टधर बने। इनके द्वारा प्रतिष्ठापित बड़ी संख्या में जिनप्रतिमायें प्राप्त हुई हैं, जो वि०सं० १६११ से वि०सं० १६५९ तक की हैं। इनका विवरण इस प्रकार है ४. ५. ६. ७. ८. ९. १०. Jain Education International ० ६६ पद्मसागर उपाध्याय धर्मसागरगणि वि०सं० १६४६-४८ उपाध्याय शांतिचन्द्र देवविमल ان For Private & Personal Use Only वि०सं० १६४६ से पूर्व वि०सं० १६४९ वि०सं० १६५२ www.jainelibrary.org
SR No.003611
Book TitleTapagaccha ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2000
Total Pages362
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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