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जैन कर्म सिद्धान्त : एक तुलनात्मक अध्ययन
उपादान का सम्बन्ध भी मोहनीय कर्म से ही माना जा सकता है । दिट्टूपादान, सीलब्बत्तूपादान और अत्तवादुपादान का सम्बन्ध दर्शन मोह से और कामूपादान का सम्बन्ध चारित्रमोह से है । वैसे ये उपादान वैयक्तिक पुरुषार्थ को सन्मार्ग की दिशा में लगाने में बाधक हैं और इस रूप में वीर्यान्तराय के समान हैं ।
१०. भव-भव का अर्थ है पुनर्जन्म कराने वाला कर्म । भव दो प्रकार का है— कम्मभव और उप्पत्तिभव । जो कर्म पुनर्जन्म कराने वाला है वह कर्मभव (कम्मभव) है और जिस उपादान को लेकर व्यक्ति लोक में जन्म ग्रहण करता है वह उत्पत्तिभव (उप्पत्तिभव ) है । भव जैन दर्शन के आयुष्य कर्म से तुलनीय है । कम्मभव भावी जीवन सम्बन्धी आयुष्य-कर्म का बन्ध है जो तृष्णा या मोह के कारण होता है । उप्पत्तिभव वर्तमान जीवन सम्बन्धी आयुष्य -कर्म है |
११. जाति - देवों का देवत्व, मनुष्यों का मनुष्यत्व, चतुष्पदों का चतुष्पदत्व जाति कहा जाता है । जाति भावी जन्म की योनि का निश्चय है जिससे पुनः जन्म ग्रहण करना होता है । जाति की तुलना जैन दर्शन के जाति नाम कर्म से और कुछ रूप में गोत्र-कर्म से की जा सकती है ।
१२. जरा-मरण - जन्म धारण कर वृद्धावस्था और मृत्यु को प्राप्त होना जरा-मरण है । जरा-मरण की तुलना भी आयुष्य कर्म के भोग से की जा सकती है । आयुष्य-कर्म का क्षय होना ही जरामरण है ।
इस प्रकार बौद्ध दर्शन के प्रतीत्य-समुत्पाद और जैन दर्शन के कर्मों के वर्गीकरण में कुछ निकटता देखी जा सकती है । यद्यपि दोनों में मुख्य अन्तर यह है कि बौद्धदर्शन में प्रतीत्यसमुत्पाद की कड़ियों में पारस्परिक कार्य-कारण श्रृंखला की जो मनोवैज्ञानिक योजना दिखाई गई है, वैसी जैन कर्म सिद्धान्त में नहीं है । उसमें केवल मोहकर्म का अन्य कर्मों से कुछ सम्बन्ध खोजा जा सकता है । फिर भी पंचास्तिकायसार में हमें एक ऐसी मनोवैज्ञानिक योजना परिलक्षित होती है,
जिसकी तुलना प्रतीत्यसमुत्पाद से की जा सकती है । '
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J ७. महायान दृष्टिकोण और अष्टकर्म
महायान बौद्ध दर्शन में कर्मों का ज्ञेयावरण और क्लेशावरण के रूप में वर्गीकरण किया गया है। वह जैन दर्शन के कर्म वर्गीकरण के काफी निकट है । क्लेशावरण बन्धन एवं दुःख का कारण है जबकि ज्ञेयावरण ज्ञान के प्रकाश या सर्वज्ञता में
१. पंचास्तिकायसार, १२८ व १२९.
२. अभिधर्म कोष- कर्मनिर्देश नामक चौथा निर्देश, उद्धृत जैन स्टडीज, पृ० २५१
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