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________________ कर्म-बन्ध के कारण, स्वरूप एवं प्रक्रिया ७१. श्रद्धा का अभाव असातावेदनीय कर्म के कारण माने गये हैं । इन क्रियाओं के विपाक के रूप में आठ प्रकार की दुःखद संवेदनाएँ प्राप्त होती हैं-- १. कर्ण- कटु, कर्कश स्वर सुनने को प्राप्त होते हैं २. अमनोज्ञ एवं सौन्दर्यविहीन रूप देखने को प्राप्त होता है, ३. अमनोज्ञ गन्धों की उपलब्धि होती है, ४. स्वादविहीन भोजनादि मिलता है, ५. अमनोज्ञ, कठोर एवं दुःखद संवेदना उत्पन्न करनेवाले स्पर्श की प्राप्ति होती है, ६. अमनोज्ञ मानसिक अनुभूतियों का होना, ७. निन्दाअपमानजनक वचन सुनने को मिलते हैं और ८. शरीर में विविध रोगों की उत्पत्ति से शरीर को दुःखद संवेदनाएँ प्राप्त होती हैं । ४. मोहनीय कर्म जैसे मदिरा आदि नशीली वस्तु के सेवन से विवेक शक्ति कुंठित हो जाती है, उसी प्रकार जिन कर्म-परमाणुओं से आत्मा की विवेक शक्ति कुंठित होती है और अनैतिक आचरण में प्रवृत्ति होती है, उन्हें मोहनीय ( विमोहित करने वाले) कर्म कहते हैं । इसके दो भेद हैं--दर्शनमोह और चारित्रमोह । मोहनीय कर्म के बन्ध के कारण - सामान्यतया मोहनीय कर्म का बन्ध छः कारणों से होता हैक्रोध, २. अहंकार, ३. कपट, ४. लोभ, ५ . अशुभाचरण और ६. विवेकाभाव ( विमूढ़ता ) । प्रथम पाँच से चारित्रमोह का और अन्तिम से दर्शनमोह का बन्ध होता है । कर्मग्रन्थ में दर्शनमोह और चारित्रमोह के बन्धन के कारण अलग-अलग बताये गये हैं । दर्शनमोह के कारण हैं— उन्मार्ग देशना, सन्मार्ग का अपलाप, धार्मिक सम्पत्ति का अपहरण और तीर्थंकर, मुनि, चैत्य ( जिनप्रतिमाएँ) और धर्म-संघ के प्रतिकूल आचरण । चारित्रमोह कर्म के बन्धन के कारणों में कषाय, हास्य आदि तथा विषयों के अधीन होना प्रमुख हैं । तत्त्वार्थसूत्र में सर्वज्ञ, श्रुत, संघ, धर्म और देव के अवर्णवाद ( निन्दा) को दर्शनमोह का तथा कषायजनित आत्म-परिणाम को चारित्रमोह का कारण माना गया है।" समवायांगसूत्र में तीव्रतम मोहकर्म के बन्धन के तीस कारण बताये गये हैं । ६ १. जो किसी त्रस प्राणी को पानी में डुबाकर मारता है । २. जो किसी त्रस प्राणी को तीव्र अशुभ अध्यवसाय से मस्तक को गीला चमड़ा बांधकर मारता है । ३. जो किसी त्रस प्राणी को मुँह बाँध कर मारता है । ४. जो किसी प्राणी को अग्नि के धुएँ से मारता है । ५. जो किसी त्रस प्राणी के मस्तक का छेदन करके मारता है । ६. जो किसी त्रस प्राणी को छल से मारकर १. कर्मग्रन्थ, १।५५. ३. वही, पृ० २३७. ५. तत्त्वार्थ सूत्र, ६।१४-१५. Jain Education International २. नवपदार्थ ज्ञानसार, पृ० २३७: ४. कर्मग्रन्थ, १५६-५७. ६. समवायांग, ३०।१. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003604
Book TitleJain Karm Siddhant ka Tulnatmaka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1982
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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