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कर्म-बन्ध के कारण, स्वरूप एवं प्रक्रिया
२. दर्शनावरणीय कर्म
जिस प्रकार द्वारपाल राजा के दर्शन में बाधक होता है उसी प्रकार जो कर्मवणाएँ आत्मा की दर्शन-शक्ति में बाधक होती हैं, वे दर्शनावरणीय कर्म कहलाती हैं । ज्ञान से पहले होने वाला वस्तु तत्त्व का निर्विशेष ( निर्विकल्प ) बोध, जिसमें सत्ता के अतिरिक्त किसी विशेष गुण धर्म की प्राप्ति नहीं होती, दर्शन कहलाता है । दर्शनावरणीय कर्म आत्मा के दर्शन - गुण को आवृत्त करता है ।
दर्शनावरणीय कर्म के बन्ध के कारण - ज्ञानावरणीय कर्म के समान ही छः प्रकार के अशुभ आचरण के द्वारा दर्शनावरणीय कर्म का बन्ध होता है(१) सम्यक दृष्टि की निन्दा ( छिद्रान्वेषण) करना अथवा उसके प्रति अकृतज्ञ होना, (२) मिथ्यात्व या असत् मान्यताओं का प्रतिपादन करना, (३) शुद्ध दृष्टिकोण की उपलब्धि में बाधक बनना, (४) सम्यकदृष्टि का समुचित विनय एवं सम्मान नहीं करना, (५) सम्यकदृष्टि पर द्वेष करना, (६) सम्यकदृष्टि के साथ मिथ्याग्रह सहित विवाद करना । "
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दर्शनावरणीय कर्म का विपाक - उपर्युक्त अशुभ आचरण के कारण आत्मा का दर्शन गुण नौ प्रकार से कुंठित हो जाता है- १. चक्षुदर्शनावरण - नेत्रशक्ति का अवरुद्ध हो जाना । २. अचक्षुदर्शनावरण- नेत्र के अतिरिक्त शेष इन्द्रियों की सामान्य अनुभवशक्ति का अवरुद्ध हो जाना । ३. अवधिदर्शनावरणसीमित अतीन्द्रिय दर्शन की उपलब्धि में बाधा उपस्थित होना । ४. केवल दर्शनावरण- परिपूर्ण दर्शन की उपलब्धि का नहीं होना । ५. निद्रा - सामान्य निद्रा । ६ निद्रानिद्रा- गहरी निद्रा । ७. प्रचला - बैठे-बैठे आ जाने वाली निद्रा । ८. प्रचलाप्रचला-चलते-फिरते भी आ जाने वाली निद्रा । ६. स्त्यानगृद्धिजिस निद्रा में प्राणी बड़े-बड़े बल-साध्य कार्य कर डालता है । अन्तिम दो अवस्थाएँ आधुनिक मनोविज्ञान के द्विविध व्यक्तित्व के समान मानी जा सकती हैं । उपर्युक्त पाँच प्रकार की निद्राओं के कारण व्यक्ति की सहज अनुभूति की क्षमता में अवरोध उत्पन्न हो जाता है । ३. वेदनीय कर्म
जिसके कारण सांसारिक सुख-दुःख की संवेदना होती है, उसे वेदनीय कर्म कहते हैं । इसके दो भेद हैं - १. सातावेदनीय और २ असातावेदनीय । सुख रूप संवेदना का कारण सातावेदनीय और दुःख रूप संवेदना का कारण असातावेदनीय कर्म कहलाता है ।
१. ( अ ) तत्त्वार्थसूत्र, ६।११. (ब) कर्मग्रन्थ, १।५४.
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६.२
२. तत्त्वार्थ सूत्र, ८1८.
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