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कम-बन्ध के कारण, स्वरूप एवं प्रक्रिया है। गीता में भी हिंसा, असत्य, स्तेय, अब्रह्मचर्य और परिग्रह ( लोभ-आसक्ति) अविरति ये पाँचों प्रकार बन्धन के कारण माने गये हैं। प्रमाद जो तमोगुण से प्रत्युत्पन्न है, गीता के अनुसार, अधोगति का कारण माना गया है । यद्यपि गीता में 'कषाय' शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है, तथापि जैन विचारणा में कषाय के जो चार भेद-क्रोध, मान, माया और लोभ बताये गये हैं, उनको गीता में भी आसुरी-सम्पदा का लक्षण एवं नरक आदि अधोगति का कारण माना गया है। जैनविचारणा में योग शब्द मानसिक, वाचिक और शारीरिक कर्म के लिए प्रयुक्त हुआ है और इन तीनों को बन्धन का हेतु माना गया है। गीता स्वतन्त्र रुप से शारीरिक कर्म को बन्धन का कारण नहीं मानती, वह मानसिक तथ्य से सम्बन्धित होने पर ही शारीरिक कर्म को बन्धक मानती है, अन्यथा नहीं। फिर भी गीता के १८वें अध्याय में समस्त शुभाशुभ कर्मों का सम्पादन मन, वाणी और शरीर से माना गया है।
गीता के अनुसार आसुरी-सम्पदा बन्धन का हेतु है। उसमें दम्भ, दर्प अभिमान, क्रोध, पारुष्य ( कठोर वाणी ) एवं अज्ञान को आसुरी-सम्पदा कहा गया है।" श्रीकृष्ण कहते हैं, 'दम्भ, मान, मद से समन्वित दुष्पूर्ण आसक्ति ( कामनाएँ) से युक्त तथा मोह ( अज्ञान ) से मिथ्याष्टित्व को ग्रहण कर प्राणी असदाचरण से युक्त हो संसार-परिभ्रमण करते हैं। यदि हम गीता के इस श्लोक का विश्लेषण करें तो हमें यहाँ भी बन्धन के काम ( आसक्ति ) और मोह ये दो प्रमुख कारण प्रतीत होते हैं, जिन्हें जैन और बौद्ध परम्पराओं ने स्वीकार किया है, इस श्लोक का पूर्वार्द्ध काम से प्रारम्भ होता है और उत्तरार्द्ध मोह से । यदि ग्रन्थकार की यह योजना युक्तिपूर्ण मानी जाये तो बन्धन के कारण की व्याख्या में जैन, बौद्ध और गीता के दृष्टिकोण एकमत हो जाते हैं। उपर्युक्त श्लोक के पूर्वार्द्ध में ग्रन्थकार ने दम्भ, मान और मद को दुष्पूर्ण काम के आश्रित कहकर स्पष्ट रूप में काम को इन सबमें प्रमुख माना है और उत्तरार्द्ध में तो मोहात् शब्द का उपयोग ही मोह के महत्त्व को स्पष्ट बताता है। गीताकार यहाँ मोह ( अज्ञान ) के कारण दो बातों का होना स्वीकार करता है-१. मिथ्यादृष्टि का ग्रहण और २. असदाचरण, जो हमें जैन विचारणा के मोह के दो भेद दर्शन-मोह और चारित्र-मोह की याद दिला देते हैं । यह बात तुलनात्मक अध्ययन की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। एक अन्य श्लोक में भी गीताकार ने मोह (अविद्या-अज्ञान) और आसक्ति ( तृष्णा, राग या लोभ) को नरक का कारण बताकर उनके बन्धकत्व को स्पष्ट किया है। वहाँ कहा गया १. (अ) गीता, १६।१०; (ब) गीता ( शां०), १६।१०. २. गीता, १४।१३, १४।१७.
३. वही, १८.१५. ४. वही, १६१५.
५. वही, १६।४. . ६. वही १६।१०.
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