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________________ जैन कर्म सिद्धान्त : एक तुलनात्मक अध्ययन निर्णय का नहीं है । आधार माना गया है । मुनि सुशीलकुमारजी लिखते हैं, 'शुभ-अशुभ कर्म के बध का मुख्य आधार मनोवृत्तियाँ ही हैं । एक डॉक्टर किसी को पीड़ा पहुँचाने के लिए उसका व्रण चीरता है । उससे चाहे रोगी को लाभ ही हो जाये परन्तु डॉक्टर तो पाप-कर्म के बन्ध का ही भागी होगा। इसके विपरीत वही डॉक्टर करुणा से प्रेरित होकर व्रण चीरता है और कदाचित् उससे रोगी की मृत्यु हो जाती है, तो भी डॉक्टर अपनी शुभ भावना के कारण पुण्य का बन्ध करता है ।" पंडित सुखलालजी भी यही कहते हैं, पुण्य-बंध और पाप बंध की सच्ची कसोटी केवल ऊपरी क्रिया नहीं है, किन्तु उसकी यथार्थ कसौटी कर्ता का आशय ही है । " इस प्रकार यह स्पष्ट है कि जैन धर्म में भी कर्मों की शुभाशुभता के आधार मनोवृत्तियाँ ही हैं, फिर भी उसमें कर्म का बाह्य स्वरूप उपेक्षित निश्चयदृष्टि से तो मनोवृत्तियाँ ही कर्मों की शुभाशुभता की निर्णायक हैं, फिर भी व्यवहारदृष्टि से कर्म का बाह्य स्वरूप भी शुभाशुभता का निश्चय करता है । सूत्रकृतांग में आर्द्र कुमार बौद्धों की एकांगी धारणा का निरसन करते हुए कहते हैं कि जो मांस खाता हो - चाहे न जानते हुए ही खाता हो - तो भी उसको पाप लगता ही है । हम जानकर नहीं खाते, इसलिए दोष ( पाप ) नहीं लगता ऐसा कहना असत्य नहीं तो क्या है ? 3 इससे स्पष्ट है कि जैन दृष्टि में मनोवृत्ति के साथ ही कर्मों का बाह्य स्वरूप भी शुभाशुभता की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है । वास्तव में सामाजिक दृष्टि या लोक व्यवहार में तो यही प्रमुख निर्णायक होता है । सामाजिक न्याय में तो कर्म का बाह्य स्वरूप ही उसकी शुभाशुभता का निश्चय करता है, क्योंकि आन्तरिक वृत्ति को व्यक्ति स्वयं जान सकता है, दूसरा नहीं । जैन दृष्टि एकांगी नहीं है, वह समन्वयवादी और सापेक्षवादी हैं । वह व्यक्तिसापेक्ष होकर मनोवृत्ति को कर्मों की शुभाशुभता का निर्णायक मानती है और समाज सापेक्ष होकर कर्मों के बाह्य स्वरूप पर उनकी शुभाशुभता का निश्चय करती है । उसमें द्रव्य ( बाह्य ) और भाव ( आंतरिक ) दोनों का मूल्य है । योग ( बाह्य क्रिया ) और भाव ( मनोवृत्ति ) दोनों ही बन्धन के कारण माने गये हैं, यद्यपि उसमें मनोवृत्ति ही प्रमुख कारण है । वह वृत्ति और क्रिया में विभेद नहीं मानती । उसकी समन्वयवादी दृष्टि में मनोवृत्ति शुभ हो और क्रिया अशुभ हो, यह सम्भव नहीं । मन में शुभ भाव हो तो पापाचरण सम्भव नहीं है । वह एक समालोचक दृष्टि से कहती है कि मन में सत्य को समझते हुए भी बाहर से दूसरी बातें ( अशुभाचरण ) करना क्या संयमी पुरुषों का लक्षण है ? उसकी दृष्टि में सिद्धान्त और व्यवहार में अन्तर आत्मप्रवंचना है | मानसिक हेतु पर ही जोर देनेवाली धारणा का निरसन करते हुए सूत्रकृतांग में कहा गया है, "कर्म - बन्धन का सत्य ज्ञान नहीं बतानेवाले इस સ १. जैन धर्म, पृ० १६०. २. दर्शन और चिन्तन, खण्ड २, पृ० २२६. ३. सूत्रकृतांग, २६।२७-४२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003604
Book TitleJain Karm Siddhant ka Tulnatmaka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1982
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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