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________________ जैन कर्म सिद्धान्त : एक तुलनात्मक अध्ययन कर्मों की अल्पता और शुभ कर्मों के उदय के फलस्वरूप प्राप्त प्रशस्त अवस्था का द्योतक है । पुण्य के निर्वाण की उपलब्धि में सहायक स्वरूप की व्याख्या आचार्य अभयदेव की स्थानांगसूत्र की टीका में मिलती है। आचार्य अभयदेव कहते हैं कि पुण्य वह है जो आत्मा को पवित्र करता है अथवा पवित्रता की ओर ले जाता है।' आचार्य की दृष्टि में पुण्य आध्यात्मिक साधना में सहायक तत्त्व है। मुनि सुशील कुमार लिखते है, "पुण्य मोक्षार्थियों की नौका के लिए अनुकूल वायु है जो नौका को भवसागर से शीघ्र पार करा देती है । जैन कवि बनारसीदासजी समयसार नाटक में कहते हैं कि “जिससे भावों की विशुद्धि हो, जिससे आत्मा आध्यात्मिक विकास की ओर बढ़ता है और जिससे इस संसार में भौतिक समृद्धि और सुख मिलता है वही पुण्य है ।''3 जैन तत्त्वज्ञान के अनुसार, पुण्य-कर्म वे शुभ पुद्गल-परमाणु हैं जो शुभवृत्तियों एवं क्रियाओं के कारण आत्मा की ओर आकर्षित हो बन्ध करते हैं और अपने विपाक के अवसर पर शुभ अध्यवसायों, शुभ विचारों एवं क्रियाओं की ओर प्रेरित करते हैं तथा आध्यात्मिक, मानसिक एवं भौतिक अनुकूलताओं के संयोग प्रस्तुत कर देते हैं । आत्मा की वे मनोदशाएँ एवं क्रियाएँ भी पुण्य कहलाती हैं जो शुभ पुद्गल परमाणु को आकर्षित करती हैं। साथ ही दूसरी ओर वे पुद्गल-परमाणु जो इन शुभ वृत्तियों एवं क्रियाओं को प्रेरित करते हैं और अपने प्रभाव से आरोग्य, सम्पत्ति एवं सम्यक् श्रद्धा, ज्ञान एवं संयम के अवसर उपस्थित करते हैं, पुण्य कहे जाते है । शुभ मनोवृत्तियाँ भावपुण्य हैं और शुभ पुद्गल-परमाणु द्रव्यपुण्य हैं । पुण्य या कुशल कर्मों का वर्गीकरण भगवतीसूत्र में अनुकम्पा, सेवा, परोपकार आदि शुभ-प्रत्तियों को पुण्योपार्जन का कारण कहा गया है। स्थानांगसूत्र में नौ प्रकार के पुण्य निरूपित है १. अन्नपुण्य-भोजनादि देकर क्षुषार्त की क्षुधा-निवृत्ति करना। २. पानपुण्य-तृषा ( प्यास ) से पीड़ित व्यक्ति को पानी पिलाना । ३. लयनपुण्य-निवास के लिए स्थान देना जैसे धर्मशालाएँ आदि बनवाना । ४. शयन रुण्य -शय्या, बिछौना आदि देना । ५ वस्त्रपुण्य-वस्त्र का दान देना । ६. मनपुण्य-मन से शुभ विचार करना । जगत् के मंगल की शुभकामना करना । ७. वचनपुण्य-प्रशस्त एवं संतोष देनेवाली वाणी का प्रयोग करना। १. स्थानांग टीका, १११-१२. २. जेन धर्म, पृ० ८४. ३. समयसार नाटक उत्थानिका, २८. ४. भगवतीसत्र, ७:१०११२१. ५. स्थानांगसत्र, ६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003604
Book TitleJain Karm Siddhant ka Tulnatmaka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1982
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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