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जैन कर्म सिद्धान्त : एक तुलनात्मक अध्ययनः
आध्यात्मिकता या नैतिक पूर्णता के लिए हमें क्रमशः अशुभ कर्मों से शुभ कर्मों की ओर और शुभ कर्मों से शुद्ध कर्मों की ओर बढ़ना होगा। आगे हम इसी क्रम से उनपर थोड़ी अधिक गहराई से विवेचन करेंगे ।
$ २. अशुभ या पाप कर्म
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जैन आचार्यों ने पाप की यह परिभाषा की है कि वैयक्तिक सन्दर्भ में जो आत्मा को बन्धन में डाले, जिसके कारण आत्मा का पतन हो, जो आत्मा के आनन्द क शोषण करे और आत्मशक्तियों का क्षय करे, वह पाप है । सामाजिक सन्दर्भ में जो परपीड़ा या दूसरों के दुःख का कारण है, वह पाप है ( पापाय परपीडनं ) । वस्तुतः जिस विचार एवं आचार से अपना और पर का अहित हो और जिससे अनिष्ट फल की प्राप्ति हो वह पाप है। नैतिक जीवन की दृष्टि से वे सभी कर्म जो स्वार्थ, घृणा या अज्ञान के कारण दूसरे का अहित करने की दृष्टि से किये जाते हैं, पाप कर्म हैं । इतना ही नहीं, सभी प्रकार के दुविचार और दुर्भावनाएँ भी पाप कर्म हैं । पाप या अकुशल कर्मों का वर्गीकरण
जैन दृष्टिकोण जैन दार्शनिकों के अनुसार पाप कर्म १८ प्रकार के हैं१. प्राणातिपात ( हिंसा ), २. मृषावाद ( असत्य भाषण ) ३. अदत्तादान ( चौर्य कर्म ), ४. मैथुन ( काम - विकार ), ५ परिग्रह ( ममत्व, मूर्छा, तृष्णा या संचय -- वृत्ति ), ६. क्रोध ( गुस्सा ), ७. मान ( अहंकार ), ८. माया ( कपट, छल, षड़यन्त्र और कूटनीति ), लोभ ( संचय या संग्रह की वृत्ति ), १०. राग ( आसक्ति ), द्वेष ( घृणा, तिरस्कार, ईर्ष्या आदि ), ११. क्लेश ( संघर्ष, कलह, लड़ाई झगड़ा आदि ), १२. अभ्याख्यान ( दोषारोपण ), १३. पिशुनता ( चुगली ), १४. परपरिवाद ( परनिन्दा ), १५. रति- अरति ( हर्ष और शोक ), १६ माया - मृषा ( कपट सहित असत्य भाषण ), १७. मिथ्यादर्शनशल्य ( अयथार्थ जीवनदृष्टि ) । २
२. अदत्तादान
बौद्ध दृष्टिकोण – बौद्ध दर्शन में कायिक, वाचिक और मानसिक आधारों पर निम्न १० प्रकार के पापों या अकुशल कर्मों का वर्णन मिलता है । (अ) कायिक पाप - १. प्राणातिपात ( हिंसा ), ( चोरी ).. ३. कामे सुमिच्छाचार ( कामभोग सम्बन्धी दुराचार ) 1 (ब) वाचिक पाए - ४. मुसावाद ( असत्य भाषण ), ५. पिसुनावाचा ( पिशुन वचन ), ६. फरूसावाचा ( कठोर वचन ), ७. सम्फलाफ ( व्यर्थ आलाप ) ।
(स) मानसिक पाप - ८. अभिज्जा ( लोभ ) ९. व्यापाद ( मानसिक हिंसा या अहिल चिन्तन ), १०. मिच्छादिट्ठी ( मिथ्या दृष्टिकोण ) 1
१. अभिधान राजेन्द्र कोश, खण्ड ५, पृ० ८७६.
२. जैन सिद्ध न्त बोल- संग्रह, भाग ३, ५० १८२. ३. बौद्ध दर्शन तथा अन्य भारतीय दर्शन, भाग १, ५०४८०.
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