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जैन कर्म सिद्धान्त : एक तुलनात्मक अध्ययन
जगत् की तार्किक व्याख्या सम्भव नहीं होगी । विज्ञानवादी बौद्धों ने इसी कठिनाई से बचने के लिए भौतिक जगत् ( रूप ) का निरसन किया, लेकिन यह तो वास्तविकता से मुँह मोड़ना ही था । बौद्ध दर्शन कर्म या बन्धन के मात्र चैत्तसिक पक्ष को ही स्वीकार करता है | लेकिन थोड़ी अधिक गहराई से विचार करने पर दिखाई देता है कि बौद्ध दर्शन में भी दोनों पक्ष मिलते हैं । प्रतीत्यसमुत्पाद में विज्ञान ( चेतना ) तथा नाम-रूप के मध्य कारण-सम्बन्ध स्वीकार किया गया है । मिलिन्दप्रश्न में तो स्पष्टरूप से कहा गया है कि नाम ( चेतन पक्ष ) और रूप ( भौतिक पक्ष ) अन्योन्याश्रयभाव से सम्बद्ध हैं ।" वस्तुतः बौद्ध दर्शन भो नाम ( चेतन ) और रूप ( भौतिक ) दोनों के सहयोग से ही कार्य-निष्पत्ति मानता है । उसका यह कहना कि चेतना ही कर्म है, केवल इस बात का सूचक है कि कार्य निष्पत्ति में चेतना सक्रिय तत्त्व के रूप में प्रमुख कारण है । (ब) सांख्य दर्शन और शांकरवेदान्त के दृष्टिकोण की समीक्षा
सांख्य- दार्शनिकों ने पुरुष को कूटस्थ मानकर केवल जड़ प्रकृति के आधार पर बन्धन और मुक्ति की व्याख्या करना चाहा, लेकिन वे भी पुरुष और प्रकृति के मध्य कोई वास्तविक सम्बन्ध स्थापित नहीं कर पाये और दार्शनिकों के द्वारा कठोर आलोचना के पात्र बने । उन्होंने बुद्धि, अहंकार और मन जैसे चैत्तसिक तत्त्वों को भी पूर्णत: जड़ प्रकृति का परिणाम माना जो कि इस आलोचना से बचने का पूर्वप्रयास ही कहा जा सकता है । सांख्य दर्शन बन्धन और मुक्ति को प्रकृति से सम्बन्धित कर नैतिक जगत् में अपनी वास्तविकवादिता की रक्षा नहीं कर पाया । यदि बन्धन और मुक्ति दोनों जड़ प्रकृति से ही होते हैं, तो फिर बन्धन से मुक्ति को ओर प्रयास रूप नैतिकता भी जड़ - प्रकृति से ही सम्बन्धित होगी । लेकिन सांख्य नैतिक चेतना जिस विवेकज्ञान पर अधिष्ठित है, वह जड़ प्रकृति में सम्भव नहीं । विवेकाभाव और विवेकज्ञान दोनों का सम्बन्ध तो पुरुष से है । यदि पुरुष अविकारी, अपरिणामी और कूटस्थ है तो उसमें विवेकाभावरूप विकार जड़ प्रकृति के कारण कैसे हो सकता है । कूटस्थ आत्मवाद आत्मा के विभाव या बन्धन की तर्कसंगत व्याख्या नहीं करता । इस प्रकार सांख्य दर्शन तार्किक दृष्टि से अपनी रक्षा करने में असमर्थ रहा ।
शांकरवेदान्त में कर्म एवं माया पर्यायवाची हैं । उसमें भी सांख्य के पुरुष के समान आत्मन् या ब्रह्मन् को निर्विकारी एवं निरपेक्ष माना गया है, लेकिन यदि आत्मा निर्विकारी और निरपेक्ष है तो फिर बन्धन, मुक्ति और नैतिकता की सारी कहानी अर्थहीन है । इसी कठिनाई को समझकर शांकर वेदान्त ने बन्धन और मुक्ति को मात्र व्यवहारदृष्टि से स्वीकार किया ।
गीता का दृष्टिकोण
सैद्धान्तिक दृष्टि से गीता सांख्य दर्शन से प्रभावित है और बन्धन को मात्र जड़
१. मिलिन्दप्रश्न, लक्षणप्रश्न, द्वितीय वर्ग.
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