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________________ जैत कम सिद्धान्त : एक तुलनात्मक अध्ययन रूप में भावकर्म ( मनोविकार ) और निमित्तरूप में द्रव्यकर्म ( कर्म-परमाणु ) दोनों आवश्यक हैं । जड़ परमाणु ही कर्म का भौतिक या अचित् पक्ष है और जड़ कर्मपरमाणुओं से प्रभावित विकारयुक्त चेतना की अवस्था कर्म का चैत्तसिक पक्ष है। जैन दर्शन के अनुसार जीव की जो शुभाशुभरूप नैतिक प्रवृत्ति है, उसका मूल कारण तो मानसिक ( भावकर्म ) है लेकिन उन मानसिक वृत्तियों के लिए जिस बाह्य कारण की अपेक्षा है वही द्रव्य-कर्म है । इसे हम व्यक्ति का परिवंश कह सकते हैं । मनोवृत्तियों, कषायों अथवा भावों की उत्पत्ति स्वतः नहीं हो सकती, उसका भी कारण अपेक्षित है। सभी भाव जिस निमित्त की अपेक्षा करते हैं, वही द्रव्य-कर्म है । इसी प्रकार जब तक आत्मा में कषायों ( मनोविकार ) अथवा भावकर्म की उपस्थिति नहीं हो, तब तक कर्म-परमाणु जीव के लिए कर्मरूप में ( बन्धन के रूप में ) परिणत नहीं हो सकते । इस प्रकार कर्म के दोनों पक्ष अपेक्षित है । द्रध्य-कर्म और भाव-कर्म का सम्बन्ध पं० सूखलालजी लिखते हैं कि भाव-कर्म के होने में द्रव्य-कर्म निमित्त है और द्रव्य-कर्म में भाव-कर्म निमित्त; दोनों का आपस में बीजांकर की तरह कार्य-कारणभाव सम्बन्ध है। इस प्रकार जैन दर्शन में कर्म के चेतन और जड़ दोनों पक्षों में बीजांकुरवत पारस्परिक कार्यकारणभाव माना गया है। जैसे बीज से वृक्ष और वृक्ष से बीज बनता है और उनमें किसी को भी पूर्वापर नहीं कहा जा सकता, वैसे ही द्रव्यकर्म और भावक्रम में भी किसी पूर्वापरता का निश्चय नहीं किया जा सकता। यद्यपि प्रत्येक द्रव्यकर्म की अपेक्षा से उसका भावकम पूर्व होगा और प्रत्येक भावकर्म के लिए उसका द्रव्यकर्म पूर्व होगा । वस्तुतः इनमें सन्तति अपेक्षा से अनादि कार्य-कारण भाव है । उपाध्याय अमरमुनिजी लिखते हैं कि भावकर्म के होने में पूर्वबद्ध द्रव्य-कर्म निमित्त है और वर्तमान में बध्यमाम द्रव्यकर्म में भावकर्म निमित्त है। दोनों में निमित्त वैमित्तिक रूप कार्यकारण सम्बन्ध है । (अ) बौद्ध दृष्टिकोण एवं उसकी समीक्षा यहाँ यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होता है कि कर्मों के भौतिक पक्ष को क्यों स्वीकार करें? बौद्ध दर्शन कर्म के चैत्तसिक पक्ष को ही स्वीकार करता है और यह मानता है कि बन्धन के कारण अविद्या, वासना, तृष्णादि चैत्तसिक तत्त्व ही हैं । डॉ. टाटिया इस सन्दर्भ में जैन मत की समुचितता पर प्रकाश डालते हुए लिखते हैं कि यह तर्क दिया जा सकता है कि क्रोधादि कषाय, जो आत्मा के बन्धन की स्थितियां हैं, वे आत्मा के ही गुण हैं और इसलिए आत्मा के गुणों ( चैत्त सिक दशाओं ) को आत्मा के बन्धन का कारण मानने में कोई कठिनाई नहीं आती है । लेकिन इस सम्बन्ध में जैन विचारकों का उत्तर यह होगा कि क्रोधादि कषाय अवस्थाएँ बन्ध की १. कर्मविपाक, भमिका, पृ० २४. २. श्री अमर भारती, नव० १९६५, पृ० ९. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003604
Book TitleJain Karm Siddhant ka Tulnatmaka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1982
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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