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________________ ४. कर्म - सिद्धान्त यह मानकर चलता है कि आचार के ऐसी दो प्रकार की प्रवृत्तियाँ होती हैं । साथ ही शुभ प्रवृत्ति प्रवृत्ति का फल अशुभ होता है । ५. कर्म सिद्धान्त चेतन आत्म-तत्त्व को प्रभावित करनेवाली प्रत्येक घटना एवं अनुभूति के कारण की खोज बाह्य जगत् में नहीं करता, वरन् आन्तरिक जगत् में करता है | वह स्वयं चेतना में ही उसके कारण को खोजने की कोशिश करता है । ६३. कर्म सिद्धान्त का उद्भव जेन कर्म सिद्धान्त । एक तुलनात्मक अध्ययन क्षेत्र में शुभ और अशुभ का फल शुभ और अशुभ कर्म - सिद्धान्त का उद्भव कैसे हुआ, यह विचारणीय विषय है । भारतीय चिन्तन को जैन, बौद्ध और वैदिक तीनों परम्पराओं में कर्म - सिद्धान्त का विकास तो हुआ है, लेकिन उसके सर्वागीण विकास का श्रेय जैन परम्परा को ही है । पं० सुखलालजी का कथन है कि 'यद्यपि वैदिक साहित्य तथा बौद्ध साहित्य में कर्मसम्बन्धी विचार हैं, पर वह इतना अल्प है कि उसका कोई खास ग्रंथ उस साहित्य में दृष्टिगोचर नहीं होता । उसके विपरीत जैन दर्शन में कर्मसम्बन्धी विचार सूक्ष्म, व्यवस्थित और अति विस्तृत है ।" वैदिक परम्परा की प्रारम्भिक अवस्था में उपनिषद्काल तक कोई ठोस कर्म सिद्धान्त नहीं बन पाया था, यद्यपि वैदिक साहित्य में ऋत् के रूप में उसका अस्पष्ट निर्देश अवश्य उपलब्ध है । प्रो० मालवणिया का कथन है कि 'आधुनिक विद्वानों में इस विषय में कोई विवाद नहीं है कि उपनिषदों के पूर्वकालीन वैदिक साहित्य में कर्म या अदृष्ट: की कल्पना का स्पष्ट रूप दिखाई नहीं देता । कर्म कारण है ऐसा वाद भी उपनिषदों का सर्वसम्मतवाद हो, यह भी नहीं कहा जा सकता ।"२ वैदिक साहित्य में ऋत के नियम को स्वीकार किया गया है, लेकिन उसकी विस्तृत व्याख्या उसमें उपलब्ध नहीं है । पूर्व युग में जिन विचारकों ने इस वैचित्र्यमय सृष्टि, वैयक्तिक विभिन्नताओं, व्यक्ति की विभिन्न सुखद - दुःखद अनुभूतियों तथा सद्-असद् प्रवृत्तियों का कारण जानने का प्रयास किया था, उनमें से अधिकांश ने इस कारण की खोज बाह्य तथ्यों में की । उनके इन प्रयासों के फलस्वरूप विभिन्न धाराएँ उद्भूत हुई । $ ४. कारण सम्बन्धी विभिन्न मान्यताएँ श्वेताश्वतरोपनिषद्, सूत्रकृतांग, अंगुत्तरनिकाय, महाभारत के शान्तिपर्व तथा गीता में इन विविध विचारधाराओं के सन्दर्भ उपलब्ध हैं । उनमें कुछ प्रमुख मान्यताएँ इस प्रकार हैं १. कालवाद - समग्र जागतिक तथ्यों, वैयक्तिक विभिन्नताओं तथा व्यक्ति के सुख-दुःख एवं क्रियाकलापों का एकमात्र कारण काल है । २. स्वभाववाद - जो भी घटित होता है या होगा, उसका आधार वस्तु का अपन स्वभाव है | स्वभाव का उल्लंघन नहीं किया जा सकता । १. दर्शन और चिन्तन, पृ० २१९. २. आत्ममीमांसा, पृ० ८०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003604
Book TitleJain Karm Siddhant ka Tulnatmaka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1982
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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