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________________ '९४ जैन कर्म सिद्धान्त : एक तुलनात्मक अध्ययन २. भोगों में संयम-विषय-सुख बड़े मधुर लगते हैं, पर यदि व्यक्ति इसमें संयम न रखे तो वीर्य-नाश से शक्ति ह्रास यावत् रोगोत्पत्ति से मरण तक हो सकता है। सुन्दर स्त्रियों को देखकर मन ललचा जाता है, किन्तु परायी स्त्रियों से विषय-सुख की इच्छा करने पर समाज-व्यवस्था में विशृखंलता पैदा हो जायेगी। मन की चंचलता व दौड़ में यदि मर्यादाएँ न रहें तो अभोग्य बहन, बेटी, कुटुम्बिनी तक से विषय-सुख की लालसा जागृत हो जायेगी और इस प्रकार सामाजिक मर्यादाएँ समाप्त हो जायंगी। ३. वाणी का संयम---बोलने में संयम न रहे तो कलह एवं मनोमालिन्य बढ़ता है। चाहे जैसा, जो भी मन में आया, उसे बोलने का परिणाम बड़ा दारुण होता है। वचन के असंयम से छोटी-सी बात भी विवाद का कारण बन जाती है। अधिक झगड़े इसी कारण पैदा होते हैं। महाभारत का महायुद्ध वाणी के असंयम का ही परिणाम था। हम देखते हैं कि वाद्य-यंत्रों के वादन में, मोटर आदि वाहनों के चलाने में हाथ का संयम जरूरी होता है। थोड़ा-सा हाथ का संयम खत्म कि मोटर कहीं से कहीं जा गिरेगी। ताल व वाद्य पर नियंत्रण न रहा तो संगीत का सारा मजा किरकिरा हो जायेगा। इस प्रकार स्पष्ट है कि संयम के बिना जीवन चल नहीं सकता, सिद्धि प्राप्त नहीं हो सकती। संयम रूपी ब्रेक हर काम में आवश्यक है। जीवन की यात्रा में संयम रूपी ब्रेक न हो तो महान् अनर्थ हो सकता है। सामाजिक जीवन में भी संयम के अभाव में सुखद जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। सामाजिक जीवन में संयम के बिना प्रवेश करना संभव नहीं। व्यक्ति जब तक अपने हितों को मर्यादित नहीं कर सकता और अपनी आकांक्षाओं को समाज-हित में बलिदान नहीं कर सकता, वह सामाजिक जीवन के अयोग्य है। समाज में शांति और समृद्धि इसी आधार पर संभव है, जब उसके सदस्य अपने हितों का नियंत्रण करना जानें । सामाजिक जीवन में हमें हितों की प्राप्ति के लिए एक सीमारेखा निश्चित करनी होती है। हम अपने हित-साधन की सीमा वहीं तक बढ़ा सकते हैं, जहाँ तक दूसरे के हित की सीमा प्रारम्भ होती है । समाज में व्यक्ति अपना स्वार्थ-साधन वहीं तक कर सकता है जहाँ तक उससे दूसरे का अहित न हो। इस सामाजिक जीवन के आवश्यक तत्त्व हैं---१. अनुशासन, २. सहयोग की भावना और ३. अपने हितों का बलिदान करने की क्षमता। क्या इन सबका आधार संयम नहीं है ? सच्चाई यह है कि संयम के बिना सामाजिक जीवन की कल्पना ही संभव नहीं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003604
Book TitleJain Karm Siddhant ka Tulnatmaka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1982
Total Pages110
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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