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________________ प्रथम अध्ययन : पुण्डरीक ४५ कोई ठिगने कद वाले; बौने या कुबड़े होते हैं, कोई सुडौल होते हैं तो कोई बेडौल, कोई सुरूप तो कोई कुरूप होते हैं। इन विभिन्न प्रकार के मनुष्यों में कोई विरला ही राजा होता है, जो हिमाचल, मन्दराचल, मलयाचल आदि पर्वतों के समान अडिग, सुदढ़ और सशक्त होता है अथवा वैभवसम्पन्न होता है, विशुद्ध राजकुल में जन्मा हुआ होता है। स्वराष्ट्र-परराष्ट्र के भय से रहित, राजचिह्नों से सुशोभित, राजा के योग्य सभी गुणों से सम्पन्न होता है। ___ ऐसे शासकगुणविशिष्ट राजा की एक परिषद् होती है, जिसके सदस्य निम्नलिखित प्रकार के होते हैं-उग्रवंशी, उग्रवंशीय-पुत्र, भोग-वंशी, भोग वंशीय-पुत्र, इक्ष्वाकु, इक्ष्वाकुवंशीय-पुत्र, ज्ञातवंशी, ज्ञातपुत्र, कौरव वंशीया, कौरववंशीय-पुत्र, शुभकुलोत्पन्न, सुभटपुत्र, ब्राह्मण या ब्राह्मणपुत्र, लिच्छवी व लिच्छवीपुत्र, मन्त्री या मन्त्रीपुत्र, सेनापति एवं सेनापति-पुत्र, सेठ साहूकार आदि राजमन्त्री तथा उनके पुत्र; ये सब राजपरिषद् के सभासद होते हैं । इतनी विशाल परिषद् में से कोई-कोई व्यक्ति धर्मश्रद्धालु तथा पापभीरु होता है। उस व्यक्ति को धर्म में रुचि रखने वाला जानकर कुछ अन्यतीथिक तथाकथित श्रमण या ब्राह्मण उसके पास जाकर उसे धर्म की शिक्षा देते हैं- हे संसारभीरु राजन् ! (या आयुष्मान्) समस्त कल्याणों का कारणरूप सत्य धर्म हमारा ही है। अर्थात् हम तुम्हारे समक्ष जिस धर्म की प्ररूपणा करते हैं, उसी को सत्य समझो । दूसरे सब मत, पंथ या धर्म अनर्थकारक हैं । इस प्रकार वे अन्यतीर्थिक अपना सिद्धान्त या धर्म सुनाकर राजा आदि धर्मश्रद्धालु पुरुषों को अपने धर्म में सुदढ़ कर देते हैं, उन्हें कट्टर बना देते हैं। उन अन्यतीथिकों में सबसे पहला मत तज्जीवतच्छरीरवादी है, जो शरीर से भिन्न आत्मा को बिलकुल नहीं मानता। इसका सिद्धान्त है-शरीर ही आत्मा है । उनका कहना है-नीचे पैरों के तलुओं से लेकर ऊपर केशाग्र मस्तक तक तथा तिरछे चमड़ी तक जो शरीर प्रतीत होता है, दिखाई देता है, वही जीव है । इस शरीर से भिन्न जीव या आत्मा नाम का कोई पदार्थ नहीं है । शरीर और जीव वस्तुतः एक हैं, शरीर के मरने के साथ ही वह भी मर जाता है। शरीर के नष्ट होते ही जीव नष्ट हो जाता है; शरीर रहता है, तभी तक जीव रहता है। सब लोग यह प्रत्यक्ष देखते हैं कि जब तक यह पाँच भूतों वाला शरीर जीता रहता है, तभी तक यह जीव जीता रहता है । अतः शरीर से भिन्न जीव का अस्तित्व किसी भी प्रमाण से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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