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सूत्रकृतांग सूत्र चित्त को प्रसन्न करने वाला और पूर्वोक्त गुणों से सम्पन्न अतीव सुन्दर है । (तं च एत्थ एगं पुरिसजातं पासइ) तथा वहाँ उस पुरुष को भी देखता है, (पहीणतीरं अपत्ते पउमवरपोंडरीयं, णो हव्वाए णो पाराए अंतरा पोक्खरिणीए सेयंसि निसणं) जो किनारे से बहुत दूर हट चुका है, और उस प्रधान श्रेष्ठ श्वेतकमल तक भी पहुँच नहीं पाया है, जो न इधर का रहा है, न उधर का; मगर बेचारा उस पुष्करिणी के बीच में ही कीचड़ में फंस गया है। (तए णं से पुरिसे तं पुरिसं एवं क्यासी) तब दक्षिण दिशा से आया हुआ वह दूसरा पुरुष उस पहले पुरुष के विषय में, (जो कमल को लाने के लिये बावड़ी में घुसा था) इस प्रकार कहता है-(अहो णं इमे पुरिसे) अहो ! यह पुरुष (अखेयन्ने) मार्गजनित परिश्रम (खेद) को नहीं जानता, अथवा यह व्यक्ति इस क्षेत्र का अनुभवी नहीं है; (अकुसले अपंडिए अवियते अमेहावी बाले) वह कार्यकुशल नहीं है, हिताहित विवेकी नहीं है; इसकी बुद्धि परिपक्व नहीं है; तथा चतुर नहीं है; अभी नादान है । (णो मग्गत्थे) यह सत्पुरुषों के मार्ग में स्थित नहीं है; (णो मग्गविऊ) वह मोक्षमार्ग का ज्ञाता नहीं है। (णो मग्गरस गइपरक्कमण्णू) जिस मार्ग से अपने अभीष्ट उद्देश्य को प्राप्त करना है, उस मार्ग की गतिविधि तथा परिश्रम को नहीं जानता; (जण्णं एस पुरिसे अहं खेयन्ने कुसले जाव पउमवरपोंडरीयं उन्निक्खिस्सामि) जैसा कि इस व्यक्ति ने यह समझा था कि मैं बड़ा खेदज्ञ हूँ, कुशल हूँ तथा पूर्वोक्त विशेषताओं से युक्त हूँ, मैं इस प्रधान श्वेतकमल को उखाड़कर ले आऊंगा । (णो य खलु एयं पउमवरपोंडरीयं एवं उन्निक्खेयव्वं, जहा णं एस पुरिसे मन्ने) परन्तु यह उत्तम श्वेतकमल इस तरह उखाड़कर लाना आसान नहीं है; जैसा कि यह व्यक्ति समझ रहा है। (अहं खेयन्ने कुसले पंडिए वियत्ते मेहावी अबाले मग्गत्थे मग्गविऊ मग्गस्स गइपरक्कमण्ण असि) मैं इस श्वेतकमल के लाने में होने वाले श्रम को जानता हूँ; मैं इस कार्य में कुशल हूँ; मैं हिताहित विज्ञाता हूँ; परिपक्व बुद्धिवाला प्रौढ़ तथा मेधावी हूँ; मैं नादान बच्चा नहीं हूँ; जवाँ मर्द हूँ; मैं पूर्वज सज्जनों द्वारा आचरित मार्ग पर स्थित हूँ, उस पथ का ज्ञाता हूँ; उस मार्ग की गतिविधि और पराक्रम को जानता हूँ । (अहमेयं पउमवरपोंडरीयं उन्निक्खिस्सामि त्ति कटु) मैं अवश्य ही इस उत्तम श्वेतकमल को उखाड़कर बाहर निकाल लाऊँगा (मैं ऐसी प्रतिज्ञा करके ही यहाँ आया हूँ) (इइ बुच्चा से पुरिसे तं पुक्खिरिणी अभिक्कमे) यों कहकर वह दूसरा पुरुष उस पुष्करिणी (बावड़ी) में उतर गया । (जावं जावं च णं अभिक्कमेइ तावं तावं च णं महंते उदए महंते सेये) ज्यों-ज्यों वह आगे बढ़ता गया त्यों-त्यों उसे अधिकाधिक जल और अधिकाधिक कीचड़ मिलता गया । (तीरं पहोणे पउमवरपोंडरीयं अपत्ते) इस तरह वह भी बेचारा किनारे से दूर हट गया और उस प्रधान पुण्डरीक कमल को भी प्राप्त न कर सका (णो हव्वाए णो पाराए) यों वह न इस पार का
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