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________________ सप्तम अध्ययन : नालन्दीय ४५३ बताने का आशय यह है-वह योगक्षेमरूप पद आर्य-अनुष्ठान का हेतु होने से 'आर्य' है, अथवा मोक्ष में पहुँचाने वाला होने से 'आर्य' है, वह धर्माचरण का कारण है, इसलिए धार्मिक है, तथा वह सुगति का कारण होने से सुवचन है अथवा आज तक रत्नत्रय के सम्बन्ध में जो ज्ञान प्राप्त नहीं हुआ था उसकी प्राप्ति का कारण होने से वह योग रूप है, तथा जो कुछ भी आज तक साधना के द्वारा प्राप्त किया है, उसकी रक्षा का कारण होने से क्षेमरूप भी है। अतः ऐसे योगक्षेमरूप पद को सुन-समझकर जब साधक अपनी पैनी बुद्धि से हृदय में यह विचार करता है तो उसे यह प्रतीत होने लगता है कि 'इस श्रमण या माहन ने मुझे परम कल्याणकारी योगक्षेमरूप पद का उपदेश दिया है, वह साधक उक्त उपदेशदाता या योगक्षेमकर पद को उपलब्ध कराने वाले का आदर करता है, उसे हृदय से वन्दननमस्कार करता है, वह उसका सत्कार-सम्मान करता है, यहाँ तक कि वह उसे कल्याणरूप, मंगलरूप मानकर देवता की तरह अपने हृदय में बिठा लेता है । उसे ज्ञानस्वरूप एवं पूज्य मानकर उसकी उपासना करता है । यद्यपि वह पूज्यनीय पुरुष बदले में कुछ भी नहीं चाहता, तथापि कृतज्ञ साधक का यह कर्तव्य है कि वह उस परमोपकारी पुरुष को यथाशक्ति आदर दे । सरल हृदय उदक निम्रन्थ ने जब यह सुना तो उसके मन-मस्तिष्क के बन्द द्वार खुल गए, उसके कानों की खिड़कियाँ खुल गईं, उसके हृदय में श्री गौतमस्वामी के प्रति भावोमियाँ उछलने लगीं । मन ही मन गौतम स्वामी की महानता की सराहना करते हुए उदक निर्ग्रन्थ ने कहा- भगवन् ! सचमुच आपने जो परमकल्याणकर योगक्षेमरूप पद कहे, उन्हें मैंने पहले कभी जाना नहीं था, न ही इन्हें सुना और समझा था, न ही इन पदों को मैंने हृदय में धारण किया था । वस्तुतः ये पद मैंने पहले कभी देखे, सुने, जाने या स्मरण किये नहीं थे। गुरुमुख से भी मैंने पहले इन्हें प्राप्त नहीं किये थे, ये पद मेरे लिए आज तक गूढ़ ही रहे, मैं इन्हें संशयरहित नहीं जान सका, मैंने इन्हें अपने लिए श्रेयस्कर नहीं माने, न इनका निर्वाह किया था, न कभी हृदय से इनके बारे में निश्चय ही किया था । इसीलिए इन पदों के प्रति आज तक मैंने श्रद्धा, प्रतीति और रुचि नहीं की। मैं कितना भुलावे में रहा। भगवन् ! अब मैंने इन पदों को आपसे जाना है, समझा है, हृदय में धारण किया है, तथा मन-मस्तिष्क में इन्हें बिठाया है, इनकी योगक्षेमकारकता का निश्चय कर लिया है, इसलिए अब मैं आपसे इन पदों को जान-सुनकर तथा भली-भांति समझकर हृदय में धारण करके इन पर श्रद्धा करता हूँ, इन पर प्रतीति करता हूँ तथा इनमें अब मेरी रुचि बढ़ गई है। सरल सरस हृदय उदक निर्ग्रन्थ के शुद्ध हृदय से निकले हुए उद्गारों को सुन कर तथा हृदय परिवर्तन जानकर श्री गौतम स्वामी भी अत्यन्त प्रभावित हुए और उन्होंने कहा-हे आर्य ! जो मैंने कही हैं, ये मनगढंत बातें नहीं हैं, वे सर्वज्ञों के वचन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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