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________________ ४४२ सूत्रकृतांग सूत्र चिरद्विइया जाव अयंपि भेदे से णो णेयाउए भवइ) वे प्राणी भी कहलाते हैं और त्रस भी कहलाते हैं, वे चिरकाल तक स्थित रहते हैं। श्रावक उस त्रस प्राणियों को दण्ड नहीं देता, इसलिए श्रावक के व्रत को निविषयक बताना न्यायोचित नहीं है । (तत्थ जे आरेणं तसा पाणा जेहि समणोवासगस्स आयणसो आमरणंताए दंडे णिविखत्त) वहाँ निकट प्रदेश में रहने वाले जो त्रस पाणी हैं, जिनको श्रावक ने व्रत ग्रहण के समय से जीवन भर के लिए दण्ड देना त्याग दिया है (ते तओ आउं विष्पजहंति विप्पजहित्ता तत्थ परेणं जे तसा थावरा पाणा जेहि समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए दंडे णिक्खित्ते तेसु पच्चायंति) वे त्रस प्राणी अपनी उस आयु को समाप्त करके उस देश से दूर के प्रदेश में रहने वाले जो त्रस स्थावर प्राणी हैं, जिनको दण्ड देना श्रावक ने व्रत-प्रहण के समय से मरणपर्यन्त तक के लिए त्याग दिया है, उन त्रसस्थावर प्राणियों में उत्पन्न होते हैं (तोह समणोवासगस्स सुपच्चक्खायं भवइ) उन प्राणियों के सम्बन्ध में श्रावक का प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान होता है (ते पाणा वि जाव अयंपि भेदे से णो णेयाउए भवइ) वे प्राणी भी कहलाते हैं और त्रस भी कहलाते हैं, उन्हें श्रावक दण्ड नहीं देता। अतः श्रावकों के प्रत्याख्यान को निविषयक कहना न्यायपूर्ण नहीं है। (तत्थ जे आरेणं थावरा पाणा जेहि समणोवासगस्स अठाए दंडे अणिक्खित्ते अणट्ठाए दंडे णिक्खित्ते) वहाँ समीप के प्रदेश में जो स्थावर प्राणी हैं, जिनको श्रावक ने प्रयोजनवश दण्ड देने का त्याग नहीं किया है और बिना प्रयोजन के दण्ड देने का त्याग कर दिया है (ते तओ आउं विप्पजहंति विप्पजहित्ता तत्थ आरेणं चेव जे तसा पाणा जेहिं समणोवासगस्स आयणसो आभरणंताए दंडे णिक्खित्त तेसु पच्चायंति) वे प्राणी अपनी उस आयु को छोड़ देते हैं और छोड़कर उस समीप के प्रदेश में जो त्रस पाणी हैं, जिनको श्रावक ने व्रतग्रहण के क्षण से लेकर मरणपर्यन्त दण्ड देने का त्याग कर दिया है, उनमें आकर उत्पन्न होते हैं (तेसु समणोवासगस्स सुपच्चक्खायं भवइ) उन प्राणियों की अपेक्षा से श्रावक का प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान होता है (ते पाणा वि जाव अयंपि भेदे से णो णेयाउए भवइ) वे प्राणी भी कहलाते हैं और त्रस भी कहलाते हैं । इसलिए त्रस प्राणियों का कल्पित अभाव मानकर श्रावक के प्रत्याख्यान को निर्विषयक बताना सर्वथा अनुचित है। (तत्थ जे ते आरेणं जे थावरा पाणा जेहिं समणोवासगस्स अट्टाए दंडे अणिक्खित्ते अणटाए दंडे णिक्खित्ते) वहाँ, वे समीपवर्ती स्थावर प्राणी हैं, जिन्हें श्रावक ने प्रयोजनवश दण्ड देना तो नहीं छोड़ा है किन्तु बिना प्रयोजन के दण्ड देने का त्याग कर दिया है (ते तओ आउं विप्पजहंति विप्पजहिता ते तत्थ आरेणं चेव जे थावरा पाणा जेहिं समणोवासगस्स अट्ठाए दंडे अणिक्खित्ते अणट्ठाए णिक्खित्त तेसु पच्चायंति) वे स्थावर प्राणी अपनी उस आयु को त्याग करके, वहाँ जो स्थावर प्राणी हैं, जिन्हें श्रावक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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