SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 409
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३६८ सूत्रकृतांग सूत्र को जान लिया है, (जीवाणुभागे सुविचितिए व) तुमने ही जीवों के कर्मफल का विचार किया है, (पुव्वं समुई अवरं च पुढे) तुम्हारा ही यश पूर्व समुद्र से लेकर पश्चिम समुद्र तक फैला हुआ है । (उलोइए पाणितले ठिए वा) तुमने ही हाथ पर रखी हुई वस्तु के समान इस जगत् को देख लिया है ॥३४॥ (जीवाणुभागं सुविचितयंता) जैन शासन को मानने वाले पुरुष जीवों के कर्मफलस्वरूप पीड़ा को भलीभांति सोचकर (अन्नविहीय सोहि आहारिया) शुद्ध अन्न का स्वीकार करते हैं । (छत्रपओपजीवी न वियागरे) तथा कपट से जीविका करने वाले बनकर मायामय वचन नहीं बोलते हैं । (इह संजयाणं एसो अणुधम्मो) इस जैन शासन में संयमी पुरुषों का यही धर्म है ॥३५॥ (जे सिणायगाणं भिक्खुयाणं दुवे सहस्से णियए भोयए) जो पुरुष दो हजार भिक्षुकों को प्रतिदिन भोजन कराता है, (से उ असंजए लोहियपाणि इहेव लोए गरिहं णियच्छति) वह असंयमी तथा रुधिर से लाल हाथ वाला पुरुष इसी लोक में निन्दित होता है ॥३६॥ (इह थूलं उरभं मारियाणं उद्दिट्ठभत्तं च पगप्पएत्ता) इस बौद्धमत को मानने वाले पुरुष एक बड़े मोटे ताजे भेड़े को मारकर उसे बौद्ध भिक्षुओं के भोजन के लिए बनाकर (तं लोणतेल्लेण उवक्खडेता) उसे नमक और तेल के साथ पकाकर (सपिप्पलीय मंसं पगरंति) फिर पिप्पली आदि द्रव्यों से उसे बघारकर तैयार करते हैं । वह मांस बौद्ध भिक्षुओं के भोजन के योग्य समझा जाता है । यही इन भिक्षुओं के आहार की रीति है ॥३७॥ (अणज्जधम्मा अणारिया बाला रसेसु गिद्धा इच्चेवमाहसु) अनार्यों का कार्य करने वाले अनार्य, अज्ञानी, रसलम्पट वे बौद्ध भिक्षु यह कहते हैं कि (पभूयं पिसितं मुंजमाणा वयं रएणं णो उबलिप्पामो) बहुत मांस खाते हुए भी हम लोग पाप से नहीं बँधते ॥३८॥ (जे यावि तहप्पगारं भुजंति) जो लोग पूर्व गाथा में कहे अनुसार तथारूप मांस का सेवन करते हैं, (ते अजाणमाणा पावं सेवंति) वे अज्ञजन पाप का सेवन करते हैं । (कुसला एवं मणं न करेंति) अतः जो पुरुष कुशल हैं, वे उक्त प्रकार का माँस खाने की इच्छा भी नहीं करते। (एसा वायावि मिच्छा बुइया) मांसभक्षण में दोष न होने का कथन भी मिथ्या है ।३६।। (सवेसि जीवाणं दयट्ठयाए) सम्पूर्ण प्राणियों पर दया करने के लिए (सावज्ज दोसं परिवज्जयंता) सावद्य दोष से दूर रहने वाले (तस्संकिणो इसिणो नायपुत्ता) तथा उस सावध की आशंका करने वाले भगवान् महावीर स्वामी के शिष्य ऋषिगण (उद्दिट्ठभत्तं परिवज्जयंति) उद्दिष्टभक्त का त्याग करते हैं ॥४०॥ (भूयाभिसंकाए दुगुछमाणा) प्राणियों के उपमर्दन की आशंका से सावद्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy