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________________ ३५० सूत्रकृतांग सूत्र कार्य वे करते हैं । भगवान् जब देखते हैं कि मेरे उपदेश से यहाँ कोई फल होने वाला नहीं है, तब वे वहाँ उपदेश नहीं करते । प्रश्नकर्ता का उपकार देखकर भगवान् उनके प्रश्न का उत्तर देते हैं, अन्यथा नहीं देते। वे राजा के भय से भी धर्म का उपदेश नहीं करते तो दूसरे के भय से तो उपदेश करेंगे ही कैसे ? भगवान् स्वतन्त्र हैं, वे अपने पूर्वोपार्जित तीर्थकर नामकर्म का क्षय करने तथा आर्य पुरुषों के उपकार के लिए धर्मोपदेश देते हैं। वे उपकार होता देखकर भव्य जीवों के पास जाकर भी धर्मोपदेश करते हैं, अन्यथा वहाँ रहकर भी उपदेश नहीं देते। चाहे चक्रवर्ती हो या दरिद्र, सबको समान भाव से भगवान् धर्म का उपदेश देते हैं । इसलिए उनमें रागद्वेष की गन्ध भी नहीं है । अनार्य देश में भगवान् नहीं जाते, इसका कारण अनार्य देश से उनका कोई द्वष है, ऐसी बात नहीं है; किन्तु अनार्य पुरुष क्षेत्र, भाषा और आचरण से हीन हैं, तथा वे दर्शन और श्रद्धा से भी भ्रष्ट या हीन हैं । अतः कितना ही प्रयत्न करने पर उनका उपकार सम्भव नहीं है । अतः वहाँ जाना व्यर्थ समझकर वे अनार्य देश में नहीं जाते । आर्य देश में भी राग के कारण भगवान् भ्रमण करते हैं, ऐसी बात नहीं है। किन्तु भव्य जीवों एवं आर्य नर-नारियों के उपकार के लिए तथा अपने तीर्थकर नामकर्म के क्षपण के लिए वे भ्रमण करते हैं, अतः भगवान में रागद्वोष की कल्पना करना मिथ्या है। ___ भगवान् अन्यतीथिकों के डर से आगन्तुकों (आम जनता) के स्थानों पर नहीं ठहरते या नहीं जाते, यह कथन भी मिथ्या है, क्योंकि भगवान् सर्वज्ञ एवं सर्वदर्शी हैं, उनसे कुछ भी बात छिपी नहीं है । फिर वे प्रश्नों के उत्तर देने से डरें या हिचकिचाएँ, यह कल्पना भी कैसे की जा सकती है ? एक अन्यतीर्थी तो क्या, सभी अन्यतीर्थी मिलकर भी भगवान के सामने अपना सिर भी ऊँचा उठा नहीं सकते, अत: भगवान् को उनसे डर लगता है, यह कल्पना भी बेहूदी और झूठी है । सच्चाई यह है कि भगवान् वहीं पधारते हैं, जहाँ कुछ उपकार होता दिखता है, जहाँ कुछ भी उपकार होता नहीं दिखता, वहाँ वे नहीं पधारते । मूल पाठ पन्नं जहा वणिए उदयट्ठी, आयस्स हे पगरेति संगः। तऊवमे समणे नायपुत्ते, इच्चेव मे होइ मई वियका ॥ १६ ॥ नवं न कुज्जा विहुणे पुराणं, चिच्चाऽमई ताइ य साह एवं। एतोवया बंभवतित्ति वुत्ता, तस्सोदयट्ठी समणे त्ति बेमि ॥२०॥ समारभंते वणिया भूयगामं, परिग्गहं चेव ममायमाणा। ते गाइसंजोगमविप्पहाय, आयस्स हेउं पगरंति संगं ॥२१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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