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________________ .३३६ सूत्रकृतांग सूत्र की निहतुक उत्पत्ति बताते हैं, वस्तुतः यह मत ठीक नहीं है । यह पहले कहा जा चुका सारा जगत् एकान्त दुःखमय है, यह कथन युक्तिसंगत नहीं इसी प्रकार जगत् में अनेक जीवों को दुःखमय देखकर सम्पूर्ण जगत् को एकान्त दुःखमय कहना युक्तियुक्त नहीं है । विवेकी पुरुष को यह नहीं कहना चाहिए कि सारा जगत् दुःखरूप है, क्योंकि सम्यग्दर्शन आदि रत्नत्रय की प्राप्ति होने पर जीव को असीम आनन्द की प्राप्ति होती है, यह शास्त्र कहता है । अतएव विद्वानों ने कहा है तणसंस्थारणिसण्णोवि मुणिवरो भदरायमयमोहो। जं पावइ मुत्तिसुहं, कत्तो तं चक्कवट्टी वि॥ राग, मद और मोह से रहित मुनिवर तृण की शय्या पर बैठा हआ भी जिस मुक्तिसुख जैसे अनुपम आनन्द को प्राप्त करता है, उसको चक्रवर्ती भी कहाँ से प्राप्त कर सकता है ? अतः समस्त जगत् एकान्त रूप से दुःखात्मक है, यह विद्वान् साधक को नहीं कहना चाहिए, क्योंकि ऐसा कहने पर साधारण मानव संयम में प्रवृत्ति करने के लिए प्रोत्साहित नहीं होता। ये प्राणी वध्य हैं या अवध्य हैं, यह वचन भी न कहे . संसार में जो प्राणी चोर, डाकू, हत्यारे या पारदारिक आदि महान् अपराधी हैं, उनके लिए अहिंसाधर्मी साधु ऐसा न कहे कि ये प्राणी वध करने योग्य हैं, इन्हें मार डालना चाहिए अथवा ये वध करने योग्य नहीं है; इसी प्रकार दूसरे प्राणियों को मारने में सदा तत्पर रहने वाले सिंह, व्याघ्र, विडाल, सर्प आदि प्राणियों को देखकर साधु यह न कहे कि ये जीव वध करने योग्य हैं, अथवा ये वध करने योग्य नहीं है। किन्तु समस्त प्राणियों के प्रति समभाव रखता हुआ साधु माध्यस्थ्यवृत्ति धारण करे । आशय यह है कि साधु वध का दण्ड देने योग्य चोर और पारदारिक आदि प्राणी को दण्ड न देने योग्य निरपराधी न कहे, क्योंकि अपराधी को निरपराधी कहने से साधु को उसके कार्य का अनुमोदन लगता है । अतः अपनी साधुचर्या के अनुष्ठान में संलग्न और दूसरों के व्यापार से निरपेक्ष साधु को पूर्वोक्त बात नहीं कहनी चाहिए । यहाँ मरते हुए जीव की प्राणरक्षा के लिए 'मत मार' ऐसा कहने या उपदेश देने के निषेध का प्रसंग नहीं है, और न ही गाथा में राग या द्वष शब्द का उल्लेख है, यहाँ तो साधु के लिए उचित भाषासमिति का उपदेश है । स्वयं शीलांकाचार्य ने इस शास्त्र की टीका में स्पष्ट लिखा है कि जीवहिंसा करने में तत्पर रहने वाले सिंह, व्याघ्र, बिलाव आदि प्राणियों को देखकर साधु माध्यस्थ्यभाव का अवलम्बन लेकर रहे ।' जैसे कि १. तथाहि सिंह-व्याघ्र-मार्जारादीन् परसत्वव्यापादनपरायणान् दृष्ट्वा साधुर्माध्यस्था मवलम्बयेत् । तथा चोक्तम् -मैत्री-प्रमोद-कारुण्य-माध्यस्थ्यानि सत्त्वगुणाधिकक्लिश्यमानाविनेयेषु । -सूत्रकृतांग शीलांकवृत्ति० श्रु०२, अ०५, गा० ३० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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