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________________ पंचम अध्ययन : अनगारच त-आचारश्रुत ३१५ नियत स्वरूप सिद्ध नहीं होता। इसलिए स्वप्न, इन्द्रजाल और माया में प्रतीत होने वाले पदार्थों के समान ही जगत् के सभी प्रतीयमान पदार्थ मिथ्या हैं, यह बात सिद्ध होती है । अनुभवी विद्वान् भी कहते हैं __ यथा यथाऽर्थाश्चिन्त्यन्ते विविच्यन्ते तथा तथा । यद्यतत् स्वयमर्थेभ्यो रोचते तत्र के वयम् ? अर्थात्---"ज्यों-ज्यों गम्भीर दृष्टि से पदार्थों का विचार किया जाता है, त्यों-त्यों वे अपने स्वरूप को बदलते चले जाते हैं, अर्थात्-कभी वे किसी रूप में प्रतीत होते हैं, कभी किसी रूप में । उनका नियत एक रूप प्रतीत नहीं होता। अत: जब पदार्थों का तत्त्व ही ऐसा है, तब हम उन्हें नियतरूप देने वाले कौन हैं ?" । निष्कर्ष यह है कि दृश्य पदार्थों का प्रतीयमान रूप मिथ्या है । अत: जब पदार्थों का अस्तित्व (सद्भाव) ही सिद्ध नहीं होता, तब लोक-अलोक आदि का सद्भाव कैसे सिद्ध हो सकता है ? । परन्तु सर्वशून्यतावादी नास्तिकों का यह सिद्धान्त भ्रान्तिमूलक है । क्योंकि माया, स्वप्न या इन्द्रजाल में प्रतीत होने वाले पदार्थ सत्य पदार्थ की अपेक्षा से मिथ्या माने जाते हैं, स्वतः नहीं । यदि समस्त पदार्थ ही मिथ्या हैं, तब फिर माया, इन्द्रजाल और स्वप्न की व्यवस्था ही कैसे की जा सकती है ? तथा सर्वशून्यतावादी युक्ति के आधार पर ही समस्त पदार्थो को मिथ्या सिद्ध कर सकता है, अन्यथा नहीं। वह युक्ति यदि मिथ्या नहीं है, सत्य है तो उस युक्ति की तरह जगत के समस्त दृश्य पदार्थ भी सत्य क्यों नहीं माने जायें ? और यदि वह युक्ति मिथ्या है तो फिर उस मिथ्या युक्ति से वस्तुतत्त्व की सिद्धि कैसे की जा सकती है ? यह नास्तिक को सोचना चाहिए। जगत् के दृश्य पदार्थ अपने-अपने अवयवों द्वारा प्रकाशित होते हैं या अवयवी के द्वारा ? इस तरह दो पक्षों को प्रस्तुत करके नास्तिक ने जो दोनों पक्षों को दूषित करने की चेष्टा की है, वह भी उसका प्रलाप मात्र है। क्योंकि अवयव के साथ अवयवी का कथंचित् भेद और कथंचित् अभेद है, तथा वे अपनी-अपनी सत्ता से स्वतः प्रकाशित हैं, एवं उनके द्वारा जगत् की समस्त क्रियाएँ की जाती हैं। जैसे आग प्रत्यक्ष जलती हुई, जल ठण्डा करता हुआ, हवा स्पर्श करती हुई प्रत्यक्ष ही अनुभव की जाती है, तथा जगत् के घट-पट आदि समस्त पदार्थ अपना-अपना कार्य करते हुए देखे जाते हैं, अतः उन्हें मिथ्या मानना सर्वथा भ्रम और पागलपन है । यद्यपि पदार्थों का अन्तिम अवयव परमाणु है, तथापि वह अज्ञय नहीं है, क्योंकि घटपटादिरूप कार्यों के द्वारा वे अनुमान से ग्रहण किये जाते हैं। तथा अवयवी का ग्रहण तो प्रत्यक्ष ही होता है, उसके लिए अन्य प्रमाण की कोई आवश्यकता नहीं है। वह अवयवी प्रत्येक अवयव में व्याप्त है, इसीलिए किसी वस्तु के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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