________________
३०८
सूत्रकृतांग सूत्र और महाकाय दोनों प्रकार के जीवों को मारने से एक समान ही कर्मबन्ध (वैरबन्ध) होता है, यह एकान्त वचन नहीं बोलना चाहिए तथा इन प्राणियों की चेतना, ज्ञान, इन्द्रियों, मनों और शरीरों में सदृशता नहीं है, इसलिए इनको मारने से एकसरीखा कर्मबन्ध (वैरबन्ध) नहीं होता, यह एकान्त कथन भी नहीं करना चाहिए। इस प्रकार इन दोनों एकान्त वचनों के निषेध का अभिप्राय यह है कि उन मारे जाने वाले प्राणियों की कायिक क्षुद्रता और महत्ता ही कर्मबन्ध (वैर) की क्षुद्रता और महत्ता की कारण नहीं है, किन्तु मारने वाले का तीव्रभाव, मन्दभाव, ज्ञातभाव, अज्ञातभाव, महावीर्यता और अल्पवीर्यता भी कारण हैं। अत: मारे जाने वाले प्राणी और मारने वाले प्राणी, इन दोनों की विशिष्टता से कर्मबन्ध (वैरबन्ध) में विशेषता पैदा होती है। अत: एक मात्र मारे जाने वाले प्राणी के हिसाब से ही कर्मबन्ध (वैरबन्ध) की न्यूनाधिकता की व्यवस्था करना ठीक नहीं है। इसी दृष्टि से शास्त्रकार ने इन दोनों एकान्त कथनों को अनाचार कहा है।
दूसरी दृष्टि से देखें तो-जीव (आत्मा) नित्य है, इसलिए उसकी हिसा संभव नहीं है । यही कारण है कि पाँच इन्द्रियाँ आदि के घात को हिंसा कहते हैं । जैसा कि हिंसा का लक्षण बताया जाता है
पंचेन्द्रियाणि त्रिविधं बलं च, उच्छ्वासनिःश्वासमथान्यदायुः । प्राणाः दशैते भगवद्भिरुक्तास्तेषां,
वियोगीकरणं तु हिंसा ॥ अर्थात-पाँच इन्द्रियाँ, मनोबल, वचनबल, कायबल, उच्छ्वास, नि:श्वास और आयु ये दस प्राण भगवान् ने बताये हैं, उनका वियोग (शरीर से अलग) कर देना, हिंसा है।
यह हिंसा भावों की अपेक्षा से कर्मबन्ध को उत्पन्न करती है। यही कारण है कि रोगी के रोग की निवृत्ति के लिये भलीभाँति चिकित्सा करते हुए वैद्य के हाथ से यदि रोगी की मृत्यु हो जाती है, तो उस वैद्य का उस रोगी के साथ वैरबन्ध नहीं होता। तथा दूसरा मनुष्य जो रस्सी को साँप मानकर उसे पीटता है या काटता है तो उसे कर्मबन्ध अवश्य होता है, क्योंकि उसका भाव दूषित है ।
इसलिए शास्त्रकार कहते हैं कि विवेकी पुरुषों को क्षुद्रकाय एवं महाकाय प्राणिहिंसाजनित कर्मबन्ध के विषय में एकान्त कथन (विधान) न करके यही कहना चाहिए कि वध्य (मारा जाने वाला) और वध करने वाले (घातक) प्राणियों के भावों की अपेक्षा से कर्मबन्ध में कथंचित् सादृश्य होता भी है, कथंचित् नहीं भी होता ।
सारांश प्राणी क्षुद्रकाय हो या महाकाय दोनों की हिंसा से समान कर्म (वैर) बन्ध होता है या समान कर्मबन्ध नहीं होता, ऐसा एकान्त कथन नहीं करना
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org