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सूत्रकृतांग सूत्र
दिन भवोच्छेद (संसार का विनाश) करेंगे या सभी भव्य जीव सिद्धि (मुक्ति) को प्राप्त करेंगे, उस समय यह जगत् समस्त भव्यजीवों से रहित हो जायेगा । क्योंकि काल की आदि और अन्त नहीं है तथा जगत् में नये जीवों की उत्पत्ति नहीं होती। इसलिए मुक्ति होते-होते जब पमस्त भव्यजीव मुक्ति में चले जाएँगे, तो भव्यजीवों का इस जगत् से सर्वथा उच्छेद अवश्य हो जाएगा । नये भव्यजीव उत्पन्न नहीं होते और पुराने सभी मोक्ष में चले जाएंगे फिर भव्यजीव इस संसार में नहीं रहेंगे, इस प्रकार का एकान्त तथा ऊटपटाँग शास्त्रविरुद्ध विधान नहीं करना चाहिए ।
(२) इसी प्रकार सभी प्राणी कर्मबन्धन की गाँठों में ही बँधे रहेंगे, सभी जीव परस्पर विसदृश ही हैं, ऐसा एकान्त वचन भी कदापि न कहना चाहिए।
(३) 'तीर्थकर सदा स्थायी (शाश्वत) ही रहेंगे, उनका कभी क्षय नहीं होगा' ऐसा भी एकान्तत: नहीं कहना चाहिए।
इस प्रकार के एकान्त वचनों के कुछ नमूने देकर शास्त्रकार ने उनके विधान या कथन का निषेध इसलिए किया है कि जैसे भविष्य काल का अन्त नहीं है, इसी प्रकार भव्यजीवों का भी अन्त नहीं है। इसलिए जैसे भविष्य काल का उच्छेद असम्भव है, वैसे ही सम्पूर्ण भव्यजीवों का उच्छेद भी असम्भव है । यदि भव्यजीवों का उच्छेद सम्पूर्णरूपेण मान लिया जाए तो वे अनन्त (गिनती में) नही हो सकते, अतः सम्पूर्ण भव्यजीवों की मुक्ति होने पर उनसे जगत् को खाली बताना युक्तिसंगत नहीं है । इसी प्रकार तीर्थंकरों का भी क्षय बताना अयुक्त है । क्योंकि क्षय का कारण कर्म है । वह सिद्धों में नहीं है तो उनका क्षय किस तरह हो सकता है ? साथ ही, भवस्थ केवली भी प्रवाह की अपेक्षा से अनादि-अनन्त हैं । अतः उनका भी सम्पूर्ण रूप से इस जगत् में अभाव असम्भव है। वस्तुत: भवस्थ केवली सिद्धि को प्राप्त होते हैं, इस अपेक्षा से वे शाश्वत नहीं हैं, तथा प्रवाह की अपेक्षा से वे सदा रहते हैं, इसलिए शाश्वत भी हैं। अतः भवस्थ केवली कथंचित् शाश्वत और कथंचित् अशाश्वत हैं, यह अनेकान्तयुक्त वचन ही विवेकी साधक को कहना चाहिए । इसी तरह जगत के समस्त प्राणियों को विसदृश (विलक्षण) कहना भी युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि सभी प्राणियों का जीव समानरूप से उपयोग वाला, असंख्यप्रदेशी तथा अमूर्त है, इसलिए वे कथंचित् सदृश भी हैं, तथा भिन्न-भिन्न कर्म, गति, जाति, शरीर, अंगोपांग इत्यादि से युक्त होते हैं, इसलिए कथंचित् विसदृश भी हैं । एवं कोई अधिक वीर्यसम्पन्न होते हैं, वे कर्मग्रन्थि का सर्वथा छेदन कर देते हैं, और कोई अल्पपराक्रमी कर्मग्रन्थिच्छेदन नहीं कर पाते, इसलिए एकान्तरूप से सभी जीवों को कर्मग्रन्थि से बद्ध रहना नहीं कहा जा सकता । अतः कोई जीव कर्मग्रन्थि के भेदक और कोई भेदन नहीं करने वाले होते हैं, ऐसा कथन ही शास्त्रसम्मत समझना चाहिए।
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