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________________ तृतीय अध्ययन : आहार-परिज्ञा २६७ एता एतेषु भणितव्याः गाथा यावत् सूर्यकान्ततया विवर्तन्ते । ते जीवास्तेषां नानाविधानां त्रसस्थावराणां प्राणानां स्नेहमाहारयन्ति, ते जीवाः आहारयन्ति पृथिवीशरीरं यावत् स्यात् । अपराण्यपि च खलु तासां त्रसस्थाववरयोनिकानां पृथिवीनां यावत् सूर्यकान्तानां शरीराणि नानावर्णानि यावदाख्यातानि शेषास्त्रयः आलापकाः यथोदकानाम् || सू० ६१ ।। अन्वयार्थ शर्करा ( अह अवरं पुरक्खायं ) इसके पश्चात् श्री तीर्थंकर भगवान् ने दूसरी बात बताई थी | ( इहेगइया सत्ता णाणाविहजोगिया जाव कम्मणियाणं तत्थवुक्कमा णाणाविहाणं तस्थावराणं पाणागं सरीरेसु सचित्तेसु वा अचित्तेसु वा सरीरेसु पुढवीत्ताए सक्करत्ताए वालुयत्ताए) इस जगत् में कितने ही जीव नाना प्रकार की योनियों में उत्पन्न होकर उनमें अपने किये हुए कर्म के प्रभाव से पृथ्वीकाय में आकर अनेक प्रकार के त्रस और स्थावर प्राणियों के सचित्त और अचित्त शरीर में पृथ्वी, शर्करा तथा वालुका के रूप में उत्पन्न होते हैं, (इमाओ गाहाओ अणुगंतव्बाओ ) इस विषय में इन गाथाओं के अनुसार इनका भेद जानना चाहिए - ( पुढवी य सक्करा वालुया उवले सिलाय लोग से । अय तउय तंब सीसग रुप्प सुवण्णे य वइरे य) पृथ्वी, ( ककड़) वालुका ( रेल ), पत्थर, शिला (चट्टान) नमक, और लोहा, ताँबा, चांदी तथा सोना और वज्र ( हीरा ), ( हरियाले हिंगुलए मणोसिला सासगंजणप्पवाले अब्भ पडलब्भ वाय-बायरकाए मणिबिहाणा ) हड़ताल, हींगलू, मनसिल, सासक, अंजन, प्रवाल ( मूँगा ) अभ्रपटल (अभ्रक - भोडल) अभ्रवालुका, ये सब पृथ्वीकाय के भेद बताये जाते हैं । (गोमेज्जए य रुपए अंके फलिहे य लोहियक्खे य मरगयमसारगल्ले यमुयमोयग इंदणीले य) गोमेद्यक रत्न, रुचकरत्न, अंकरत्न, स्फटिकरत्न, लोहिताक्षरत्न, मरकतरत्न एवं मसारगल्ल, भुजपरिमोचक तथा इन्द्रनील - मणि ( चंदणगेरुय हंसगब्भपुलिए सोगंधिए य बोधव्वे ) चन्दन, गेरुक, हंसगर्भ, पुलक, सौगन्धिक, (चंदप्पभवेरुलिए जलकंते य सूरकंते य) चन्द्रप्रभ, वैडूर्य, जलकान्त एवं सूर्यकान्त, ये मणियों के भेद हैं । (एयाओ गाहाओ एएसु भाणियव्वाओ जाव सूरकंताए विउति ) इन उपर्युक्त गाथाओं में कही हुई जो मणि रत्न आदि हैं, उन पृथ्वी से लेकर सूर्यकान्त तक की योनियों में वे जीव उत्पन्न होते हैं (ते जीवा तेसि णाणाविहाणं तस्थावराणं पाणाणं सिणेहमाहा*ति) वे जीव अनेक प्रकार के त्रस और स्थावर प्राणियों के स्नेह का आहार करते हैं । (ते जीवा आहारेंति पुढवीसरीरं जाव) वे जीव पृथ्वी आदि शरीरों का भी आहार करते हैं (तेसि तसथावरजोणियाणं पुढवीणं जाव सूरकंताणं अवरेऽवि य णाणावण्णा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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