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________________ तृतीय अध्ययन : आहार - परिज्ञा २५३ आकार-प्रकार एवं रचना वाले दूसरे अनेक शरीर भी होते हैं, यह श्री तीर्थंकरदेव ने कहा है । ( अह णाणाविहाणं उरपरिसप्पथलयर पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं अवरं पुरक्खायं ) इसके पश्चात् श्री तीर्थंकरदेव ने अनेक प्रकार की जाति ( किस्म ) वाले पंचेन्द्रिय तिर्यंच प्राणी, जो छाती के बल सरककर चलते हैं, उनका वृत्तान्त बताया है। (तं जहा - अही अयगराणं आसालियाणं महोरगाणं) जैसे कि सर्प, अजगर, आशालिक और महोरग ( बड़े साँप ) आदि जमीन पर छाती के बल सरककर चलने वाले - उर:परिसर्प स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंच जीव हैं । ( तेसि च णं अहाबीएण अहावगा(ण) वे प्राणी भी अपने-अपने उत्पत्तियोग्य बीज और अवकाश के द्वारा ही उत्पन्न होते हैं | ( इत्थी पुरिसस्स जाव एत्थ णं मेहुणे एवं तं चैव नाणत्त ) इन प्राणियों में भी स्त्री और पुरुष का परस्पर मैथुन नामक संयोग होता है, उस संयोग के होने पर कर्मप्रेरित प्राणी अपने-अपने कर्मानुसार अपनी-अपनी नियत योनि में उत्पन्न होते हैं । शेष बातें पूर्ववत् कही गई हैं । (अंडं वेगया जणयंति पोयं वेगया जणयंति ) इनमें से कई अंडा देते हैं, कई बच्चा उत्पन्न करते हैं । ( से अंडे उब्भिज्जभाणे इत्थि वेगया जणयंति पुरिसमपि पुंसगमपि ) उस अण्डे के फूट जाने पर कोई स्त्री को उत्पन्न करते हैं, कोई पुरुष को और कोई नपुंसक को पैदा करते हैं । (ते जीवा डहरा समाणा वाउकायमाहारेंति) वे जीव बाल्यावस्था में वायुकाय (हवा) का आहार करते हैं, ( आणपुवेणं वुड्ढा समाणा वणस्सइकायं तस्थावरे पाणे ) क्रमशः बड़े होने पर वे वनस्पति तथा अन्य त्रस एवं स्थावर प्राणियों का आहार करते हैं । (ते जीवा आहारेंति पुढवीसरीरं जाव संत) वे जीव पृथ्वी आदि के कायों का भी आहार करते हैं और उन्हें पचाकर अपने शरीर के रूप में परिणत कर लेते हैं । (तेसि णाणाविहाणं उपरिसप्पथलयर पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं अहोणं जाव महोरगाणं अवरेऽवि य सरीरा णाणावण्णा णाणागंधा जावमक्खायं ) उन उरः परिसर्प स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों ( जो कि सर्प से लेकर महोरग तक कहे गये हैं) के अनेक वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, आकार-प्रकार एवं ढाँचे वाले अन्य शरीर भी होते हैं, ऐसा श्री तीर्थंकरदेव ने कहा है । ( अह णाणाविहाणं भुयपरिसप्पथलयरपंचिदियतिरिक्खजोणियाणं अवरं पुरवखायं) इसके पश्चात् अनेक प्रकार के भुजा के सहारे से पृथ्वी पर चलने वाले (भुजपरिसर्प) पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च हैं, उनके विषय में श्री तीर्थंकरदेव ने पहले कहा है । ( तं जहा - गोहाणं नउलाणं सिहाणं सरडाणं सल्लाणं सरवाणं खराणं घरकोइलाण विस्संभराणं सगाणं मंगुसाणं पइलाइयाणं बिरालियाण जोहाणं चउप्पाइयाण) भुजा के बल से पृथ्वी पर चलने वाले कुछ पंचेन्द्रिय तिर्यंच ये हैं-गोह, नेवला, सिंह, सरट, सल्लक, सरघ, खर, गृहकोकिल, विश्वंभर, मूषक, मंगुस, पदलालित, बिडाल, जोध, और चतुष्पद, (तेसि च णं अहाबीएण अहावगासेण इत्थीए पुरिसस्स Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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