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का समय आगम संरचना का काल रहा है। कुछ विद्वान् इस लेखन के काल का और अंग आगमों के रचना के काल का सम्मिश्रण कर देते हैं और इस लेखन को आगमों का रचनाकाल मान लेते हैं । अंग आगम भगवान महावीर का उपदेश है, और उसके आधार पर उनके गणधरों ने अंगों की रचना की है । अत: आगमों की संरचना का प्रारम्भ तो महावीर भगवान के काल से माना जाना चाहिए । उसमें जो प्रक्षेप अंश हो उसे अलग करके उसका समय-निर्णय अन्य आधारों से किया जा सकता है । अंग आगमों में सर्वाधिक प्राचीन आचारांग सूत्र का प्रथम श्रुतस्कंध माना जाता है। इस सत्य को स्वीकार करने में किसी भी विद्वान को किसी भी प्रकार की विप्रतिपत्ति नहीं हो सकती । सूत्रकृतांगसूत्र और भगवतीसूत्र के सम्बन्ध में भी यही समझा जाना चाहिए । स्थानांगसूत्र और समवायांग सूत्र में कुछ स्थल इस प्रकार के हो सकते हैं, जिनकी नवता एवं पुरातनता के सम्बन्ध में आगमों के विशिष्ट विद्वानों को गम्भीर विचार करके निर्णय करना चाहिए ।
अंगबाह्य आगम
अंग-बाह्य आगमों में उपांग, मूल, छेद आदि की परिगणना होती है। अंगबाह्य आगम गणधरों की रचना नहीं हैं। अतः उनका काल निर्धारण जैसे अन्य आचार्यों के ग्रन्थों का समय निर्धारित किया जाता है, वैसे ही होना चाहिए । अंग बाह्यों में प्रज्ञापना के कर्ता आर्य श्याम हैं। अतएव आर्य श्याम का जो समय है, वही उनका रचना समय है। आर्य श्याम को वीर निर्वाण संवत् ३३५ में युगप्रधान पद मिला और ३७६ तक वे युगप्रधान रहे । अतः प्रज्ञापना सूत्र की रचना का समय भी यही मानना उचित है। छेदसूत्रों में दशाश्रुत, बृहत्कल्प और व्यवहार सूत्रों की रचना चतुर्दशपूर्वी भद्रबाहु ने की थी। आचार्य भद्रबाहु का समय ईसापूर्व ३५७ के आसपास निश्चित है । अतः इनके द्वारा रचित इन तीनों छेदसूत्रों का समय भी वही होना चाहिए। कुछ विद्वानों का मत है कि द्वितीय आचारांग की चार चूलाएँ और पञ्चम चूला निशीथ भी चतुर्दशपूर्वी आचार्य भद्रबाहु की संरचना हैं। मूलसूत्रों में दशवैकालिक की रचना आचार्य शयंभव ने की है, इसमें किसी भी विद्वान को विप्रतिपत्ति नहीं रही। परन्तु, इसका अर्थ यह होगा कि दशवकालिक की रचना द्वितीय आचारांग और निशीथ से पहले की माननी होगी। द्वितीय आचारांग का विषय और दशवकालिक का विषय एक जैसा ही है, भेद केवल है तो संक्षेप और विस्तार का, गद्य और पद्य का एवं विषय की व्यवस्था का। तुलनात्मक अध्ययन करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि भाव, भाषा तथा विषय प्रतिपादन की शैली दोनों की करीब-करीब एक ही है। उत्तराध्ययन सूत्र के सम्बन्ध में दो मत उपलब्ध होते हैं-एक का कहना है कि उत्तराध्ययन सूत्र किसी एक आचार्य की
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