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सूत्रकृतांग सूत्र
रुक्खताए विउटैति) पूर्वोक्त प्रकार से वृक्ष में उत्पन्न और उसी में स्थिति और वृद्धि को प्राप्त करने वाले कर्म के वशीभूत वे वनस्पतिकाय के जीव कर्म से आकर्षित होकर पृथ्वीयोनिक वृक्षों में वृक्ष रूप से उत्पन्न होते हैं। (ते जीवा तेसि पुढवीजोणियाणं रुक्खाणं सिणेहमाहारेंति) वे जीव उन पृथ्वीयोनिक वृक्षों से स्नेह का आहार करते हैं, (ते जीवा पुढवीसरीरं आउतेउवाउवणस्सइसरीरं आहारति) वे जीव पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति के शरीर का आहार करते हैं। (णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्त कुव्वंति) वे नाना प्रकार के त्रस और स्थावर प्राणियों के शरीर को अचित्त कर डालते हैं । (परिविद्धत्थं तं सरीरं पुव्वाहारियं तयाहारियं विपरिणामियं सारूदिकडं संतं) वे परिविध्वस्त (प्रासुक) किये हुए एवं पहले आहार किये हुए तथा त्वचा द्वारा आहार किये हुए पृथ्वी आदि शरीरों को पचाकर अपने रूप में परिणत कर लेते हैं । (तेसि रुक्खजोणियाणं रुक्खाणं अवरेऽवि य सरीरा णाणावण्णा णाणागंधा जाणारसा णणाफासा णाणासंठाणसंठिया गाणाविहसरीरपुग्गलविउव्विया) उन वृक्षयोनिक वृक्षों के नाना वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और अवयव रचना से युक्त दूसरे शरीर भी होते हैं, जो नाना प्रकार के शरीर वाले पुद्गलों से बने हुए होते हैं । (ते जीवा कम्मोववन्नगा भवतीतिमक्खायं) वे जीव' कर्म के वशीभूत होकर पृथ्वीयोनिक वृक्षों में वृक्ष रूप से उत्पन्न होते हैं, यह श्री तीर्थंकरदेव ने कहा है।
व्याख्या वृक्षयोनिक वृक्षों की उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि और आहार
पूर्व सूत्र में पृथ्वीयोनिक वृक्षों की उत्पत्ति, आहार आदि का वर्णन किया गया था, अब इस सूत्र में शास्त्रकार उन वृक्षों का वर्णन करते हैं, जो वृक्षयोनिक होते हैं । तीर्थंकरदेव ने वनस्पतिकाय का दूसरा भेद बताया है, वह है-वृक्षयोनिक वृक्ष; जो वृक्ष वृक्ष में ही उत्पन्न होते हैं, वृक्ष से ही जिनकी उत्पत्ति होती है, वृक्ष में ही वे टिके रहते हैं और वृक्ष में ही बढ़ते हैं, विकसित होते हैं। ये वृक्षयोनिक एवं वृक्ष में ही . उत्पत्ति, स्थिति एवं वृद्धि वाले वृक्षगत जीव भी अपने कर्मों के वश ही होते हैं । कर्मों के निमित्त से ही वृक्ष में बढ़ते हुए वे जीव पृथ्वीयोनिक वृक्षों में वृक्ष रूप में उत्पन्न होकर वृक्षयोनिक वृक्षों के स्नेह का आहार करते हैं। वे पृथ्वी, जल, तेज, वायु और वनस्पति के शरीर का भी आहार करते हैं । वे अनेक प्रकार के त्रस और स्थावर जीवों के सचित्त शरीर का रस खींचकर उन्हें अचित्त कर देते हैं, फिर अचित्त किये हुए तथा पहले आहार किये हुए एवं त्वचा के द्वारा आहार किये हुए पृथ्वी आदि के शरीरों को पचाकर अपने रूप में परिणत कर लेते हैं। उन वृक्षयोनिक वृक्षों के अन्य शरीर भी होते हैं, जो अनेक वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श से युक्त होते हैं, अनेक प्रकार के आकारप्रकार, डीलडौल और ढाँचे वाले होते हैं तथा अनेक प्रकार के शारीरिक पुद्गलों से बने हुए होते हैं।
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