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तृतीय अध्ययन : आहार-परिज्ञा
२२३ आहार करते हैं । (ते जीवा पुढवीसरीरं आउसरीरं तेउसरीरं वणस्सइसरीरं आहारैति) वे जीव पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय और वनस्पतिकाय का आहार करते हैं। (णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुव्वंति) वे जीव नाना प्रकार के त्रस और स्थावर प्राणियों के शरीर को अचित्त कर देते हैं, (परिविद्धत्थं तं सरीरं पुवाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारूवियकडं संत) वे पृथ्वी आदि के अत्यन्त विध्वस्त उस शरीर को कुछ प्रासुक करते हैं, पहले आहार किए हुए और उत्पत्ति के बाद त्वचा द्वारा आहार किये हुए पृथ्वीकाय आदि शरीरों को वे अपने शरीर के रूप में परिणत कर लेते हैं । (पुढवीजोणियाणं तेसि रुक्खाणं अवरेऽवि य सरीरा णाणावण्णा णाणागंधा णाणारसा णाणाफासा णाणासंठाणसंठिया गाणाविहसरीरपुग्गलविउन्वित्ता) उन पृथ्वीयौनिक (पृथ्वीकाय में उत्पन्न हुए) वृक्षों के दूसरे शरीर भी नाना प्रकार के वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और नानाविध अवयव रचनाओं से युक्त तथा अनेकविध पुद्गलों से बने होते हैं। (ते जीवा कम्मोववनगा भवंतित्तिमक्खायं) वे जीव कर्म के वशीभूत होकर स्थावरयोनि में उत्पन्न होते हैं, यह तीर्थंकरों ने कहा है।
व्याख्या
बीजकायिक जीवों की उत्पत्ति एवं आहार क्या व कैसे ? इस सूत्र में अध्ययन का प्रारम्भ करते हुए शास्त्रकार ने बीजकाय जीवों के आहार के सम्बन्ध में निरूपण किया है। श्री सुधर्मास्वामी जम्बूस्वामी से कहते हैं, कि श्रमण भगवान महावीर ने आहार-परिज्ञा नामक एक अध्ययन का निरूपण किया है, जिसका अभिप्राय यह है कि इस जगत् में एक बीजकाय नामक जीव होते हैं, उनका शरीर ही बीज है, इसलिए वे बीजकाय कहलाते हैं। वे बीजकायिक जीव चार प्रकार के होते हैं---अग्रबीज, मूलबीज, पर्वबीज और स्कन्धबीज । जिनके बीज अग्रभाग में उत्पन्न होते हैं, वे बीज अग्रबीज हैं, जैसे तिल, ताल, आम और शालि आदि । जो मूल से उत्पन्न होते हैं, वे मूलबीज कहलाते हैं, जैसे अदरक आदि । जो पर्व से उत्पन्न होते हैं, वे पर्व बीज कहलाते हैं, जैसे इक्षु आदि । जो स्कन्ध से उत्पन्न होते हैं, वे स्कन्धबीज कहलाते हैं, जैसे सल्लकी आदि ।
ये चारों प्रकार के जीव वनस्पतिकायिक जीव हैं । वे अपने-अपने बीजों से उत्पन्न होते हैं, दूसरे के बीज से नहीं। जिस वृक्ष की उत्पत्ति के लिए जो प्रदेश होता है, उसी प्रदेश में वह वृक्ष उत्पन्न होता है, अन्यत्र नहीं होता। तथा जिनकी उत्पत्ति के लिए जो काल, भूमि, जल, आकाश प्रदेश और बीज अपेक्षित हैं, उनमें से एक के न होने पर भी वे उत्पन्न नहीं होते। इस प्रकार वनस्पतिकाय के जीवों की उत्पत्ति में भिन्न-भिन्न काल, भूमि, जल और बीज आदि तो कारण हैं ही, साथ ही कर्म भी
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