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सूत्रकृतांग सूत्र
फुलेल आदि लगाना) नहीं करते । (ते णं एतेणं विहारेणं विहरमाणा बहूई वासाइं सामन्नपरियागं पाउणंति) वे महात्मा इस प्रकार उग्रविहार करते हुए बहुत वर्षों तक श्रमण पर्याय (साधु दीक्षा) का पालन करते हैं, (बहु बहु आबाहंसि उपन्नंसि वा अणुपन्नंसि वा बहूई भत्ताई पच्चक्खंति) अनेकानेक रोगों की अड़चनें उपस्थित पर होने या न होने पर वे चिरकाल तक आहार का त्याग कर देते हैं, यानी आमरण अनशन (संथारा) कर लेते हैं, (पच्चक्खाइत्ता बहूई भत्ताइं अणसणाए छेदिति) वे अनेक दिनों तक आहार का प्रत्याख्यान करके यानी आमरण अनशनपूर्वक संथारा करके उसे पूर्ण करते हैं । (अणसणाए छेदित्ता जस्सट्ठाए नग्गभावे मुडभावे अण्हाणभावे अदंतवणगे अछत्तए अणोवाहणए) अनशन के पूर्णतया सिद्ध (पालन) होने के पश्चात् उन महात्मा पुरुषों ने जिस प्रयोजन से नग्नभाव, मुण्डितभाव (सिर मंडाना), स्नान न करना, दांत साफ करना, छाता न लगाना, पैर में जूते न पहनना आदि तथा (भूमिसेज्जा फलगसेज्जा कसेज्जा केसलोए बंभचेरवासे परघरवेसे कीरति) भूमि पर सोना, पट्टे पर सोना या लकड़ी पर सोना, केशलोच करना, ब्रह्मचर्य पालन करना, भिक्षा के लिए दूसरों के घरों में जाना आदि कार्य किये जाते हैं। (लद्धावलद्ध माणावमाणणाओ हीलणाओ निंदणाओ खिसणाओ गरहणाओ तज्जणाओ तालणाओ उच्चावया गामकंटगा बावीसं परीसहोवसग्गा अहियासिज्जंति) कभी आहार प्राप्त होता है, कभी नहीं होता, तथा जिसके लिए मान-अपमान, अवहेलना, निन्दा, फटकार, झिड़कियाँ, मार-पीट, धमकियाँ, ऊँची नीची बातें, कानों को अप्रिय लगने वाले अनेक कटुवचन एवं २२ प्रकार के परीषह और उपसर्ग समभाव से सहे जाते हैं । (तमढें आराहं ति) इस प्रकार वे महामुनि जिस उद्देश्य से साधु धर्म में दीक्षित हुए थे, उसकी आराधना करते हैं। (तमढें आराहित्ता घरिमेहि उस्सासनिस्सासेहि अणंतं अणुत्तरं निव्वाघायं निरावरणं कसिणं पडिपुण्णं केवलवरणाणदंसणं समुप्पा.ति) वे उस उद्देश्य को सिद्ध करके अन्तिम श्वास और उच्छवास में अन्तरहित, सर्वोत्तम, बाधारहित आवरण से सर्वथा रहित सम्पूर्ण और प्रतिपूर्ण केवलज्ञान -केवलदर्शन को प्राप्त करते हैं। (समुप्पाडित्ता तओ पच्छा सिझंति बुझंति मुच्चंति परिणिव्वायंति सव्वदुक्खाणं अंतं करेंति) उक्त केवलज्ञान-केवलदर्शन प्राप्त होने के बाद वे सिद्धि (मुक्ति) को प्राप्त करते हैं, वे समस्त कर्मों से मुक्त हो जाते हैं, शान्त हो जाते हैं, एवं समस्त दुखों का नाश कर देते हैं ।
(एगच्चाए पुण एगे भयंतारो भवंति) कुछ महात्मा एक ही भव (जन्म) में मुक्ति पा लेते हैं । (अवरे पुण पुव्वकम्मावसेसेणं कालमासे कालं किच्चा अन्नयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति) कुछ दूसरे महात्मा पूर्वकर्मों के शेष रह जाने पर आयुष्य पूर्ण होने पर मृत्यु को प्राप्त करके देवलोक में देवरूप में उत्पन्न होते हैं । (तं जहामहड्ढिएसु महज्जुतिएसु महापरक्कमेसु महाजसेसु महाबलेसु महाणुभावेसु महासुक्खेसु .
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