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द्वितीय अध्ययन : क्रियास्थान
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विपर्यासदण्ड है। माता, पिता, भाई, बहन, पत्नी, पुत्र, पुत्री पुत्रवधू आदि पारिवारिकजन या अन्य मित्रादि हितैषीजन जो हितैषी, सहायक एवं मित्र हैं, उन्हें गलतफहमी से शत्रु समझना और शत्रु को मित्र समझना अथवा साहुकार को चोर और चोर को भ्रम से साहकार समझकर दण्ड देना, दृष्टिविपर्यासदण्ड कहलाता है । मनुष्य कई बार गलतफहमी में पड़कर अदण्ड्य को दण्ड दे बैठता है, तथा जो दण्डनीय है उसे अदण्ड्य समझ लेता है। संसार में इसी दृष्टिविपर्यास के कारण अनेक अनर्थ होते हैं । यही पाँचवें क्रियास्थान का स्वरूप है।
मूल पाठ अहावरे छठे किरियट्ठाणे मोसावत्तिएत्ति आहिज्जइ। से जहाणामए केइ पुरिसे आयहेउं वा, णाइहेउं वा, अगारहेउं वा, परिवारहेउं वा सयमेव मुसं वयति, अण्णेण वि मुसं वाएइ, मुसं वयंतंपि अण्णं समणुजाणइ, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज्जंति आहिज्जइ । छठे किरियट्ठाणे मोसात्तिए त्ति आहिए ॥ सू० २२॥
संस्कृत छाया अथाऽपरं षष्ठं क्रियास्थानं मिथ्याप्रत्ययिकमित्याख्यायते। तद्यथा नाम कश्चित् पुरुषः आत्महेतोआतिहेतोरगारहेतोः परिवारहेतोः स्वयं मृषा वदति, अन्येनाऽपि मृषा वादयति, मृषावदन्तमन्यं समनुजानाति, एवं खलु तस्य तत्प्रत्ययिकं सावद्यमाधीयते । षष्ठं क्रियास्थानं मृषावादप्रत्ययिकमाख्यातम् ॥ सू० २२ ॥
अन्वयार्थ (अहावरे छठे किरियट्ठाणे मोसावत्तिएत्ति आहिज्जइ) इसके पश्चात् छठे क्रियास्थान का वर्णन है, जो मृषाप्रत्ययिक कहलाता है। (से जहाणामए केइ पुरिसे आयहेउं वा, णाइहेउं वा, अगारहेउं वा, परिवारहेउं वा सयमेव मुसं वयति, अण्णेणवि मुसं वाएइ, मुसं वयंतपि अण्णं समणुजाणइ) जैसे कोई पुरुष अपने लिए, या अपनी ज्ञाति (जाति) के लिए, अपने घर या अपने परिवार के लिए स्वयं झूठ बोलता है, दूसरे से भी झूठ बुलवाता है और जो असत्य बोलते हैं, उनका अनुमोदन-समर्थन करता है, उनकी पीठ थपथपाता है । (एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज्जत्ति आहिज्जइ) ऐसा करने के कारण उस व्यक्ति को असत्य बोलने का पाप लगता है। (छठे किरियट्ठाणे मोसावत्तिएत्ति आहिए) इस प्रकार छठे क्रियास्थान मृषाप्रत्ययिक का स्वरूप बताया गया है।
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