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सूत्रकृतांग सूत्र
दण्ड - पाप ( हिंसादण्ड ) की क्रिया करना ( अकम्हादंडे ) दूसरे के अपराध का दूसरे को दण्ड देना -- अकस्मात् दण्ड क्रिया करना, (दिट्ठिविपरियासिया दंडे) दृष्टि-दोष - वश किसी को दण्ड देना, जैसे पत्थर का टुकड़ा समझकर पक्षी को बाण से मारना दृष्टिविपर्यासक दण्ड किया, (मोसवत्तिए) मिथ्या भाषण करके पाप करनामृषाप्रत्ययिक दण्ड किया, ( अदिशादाणवत्तिए) वस्तु के मालिक के दिये बिना ही उसकी वस्तु ले लेना - अदत्तादानप्रत्ययिक क्रिया, ( अज्झत्थवत्तिए) मन में बुरा चिन्तन करना - अध्यात्मप्रत्ययिक क्रिया ( माणवत्तिए) जाति आदि के गर्व के कारण दूसरे को अपने से नीच मानना मानप्रत्ययिक क्रिया, ( मित्तदोसवत्तिए) मित्रों के साथ द्वेषभाव या द्रोह करना मित्रद्वेषप्रत्ययिक क्रिया, ( मायावत्तिए) छलकपट, ठगी आदि करना मायाप्रत्ययिक क्रिया, ( लोभवत्तिए) लोभ करना - किसी वस्तु के लोलुप - आसक्त बनना लोभप्रत्ययिक क्रिया, ( इरियावत्तिए) पाँच समिति और तीन गुप्तियों का पालन ( ईर्यापूर्वक चर्या) करने और सर्वत्र उपयोग रखने पर भी सामान्यतः कर्मबन्ध होना -- ईर्यापथिक क्रिया है ।
इन तेरह क्रियास्थानों से जीव के कर्मबन्ध होता है, इनके अतिरिक्त कोई ऐसी क्रिया नहीं है, जो कर्मबन्ध का कारण हो ।
व्याख्या
संसार के समस्त जीव : इन्हीं तेरह क्रियास्थानों में
इस सूत्र में श्री सुधर्मास्वामी श्री जम्बूस्वामी से भगवान महावीर के श्रीमुख से सुने हुए १३ क्रियास्थानों का उल्लेख करते हैं । वे क्रियास्थान किस-किस प्रवृत्ति निमित्त से होते हैं, कौन से धर्मरूप हैं और कौन-से अधर्मरूप है इत्यादि बातों का निरूपण शास्त्रकार ने किया है ।
श्री सुधर्मास्वामी अपने शिष्य श्री जम्बूस्वामी से कहते हैं -- आयुष्मन् ! मैंने तीर्थकर देव श्री भगवान् महावीर के श्रीमुख से क्रियास्थान का वर्णन सुना है, उन्होंने जिस प्रकार से क्रियास्थानों का निरूपण किया था, मैं तुम्हें सुनाता हूँ, ध्यानपूर्वक सुनो। इस जगत् में पूर्वादि दिशाओं तथा विदिशाओं में कई प्रकार के मनुष्य रहते हैं, उनमें कई आर्य हैं, कई अनार्य, कई उच्चगोत्रीय हैं तो कई नीच गोत्रीय, कई भाग्यशाली हैं तो कई अभागे हैं, कई सुरूप और सुवर्ण हैं, तो कई कुरूप और कुवर्ण । इस प्रकार के विचित्र एवं विविध प्रकार के मनुष्यों से भरे हुए इस लोक में खासकर दो प्रकार के क्रियास्थानों में समस्त जीव प्रवर्तमान रहते हैं— एक तो धर्म क्रियास्थान और दूसरा अधर्म क्रियास्थान; अथवा एक उपशान्त और दूसरा अनुपशान्त क्रियास्थान है । कोई भी क्रियावान् प्राणी इन दोनों स्थानों से अलग नहीं है । जो
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