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________________ १०८ सूत्रकृतांग सूत्र जैन परिभाषा के अनुसार प्रत्येक राग-द्वषजन्य प्रवृत्ति हिंसारूप होती है, जो वृत्ति अर्थात् भावना की तीव्रता-मन्दता के अनुसार कर्मबन्ध का कारण बनती है। प्रसंगवशात् शास्त्रकार ने अष्टांग निमित्तों एवं अंगविद्या आदि विविध विद्याओं का भी उल्लेख किया है। दीर्घनिकाय के सामञ्जफलसुत्त में भी अंगविद्या, स्वप्त विद्या आदि के लक्षणों का इसी प्रकार उल्लेख है। प्रस्तुत अध्ययन का पहला सूत्र इस प्रकार है---- मूल पाठ सुयं मे आउसं तेणं भगवया एवमक्खायं-इह खलु किरियाठाणे णामज्झयणे पण्णत्ते, तस्स णं अयमठे। इह खलु संघ हेणं दुवे ठाणे एवमाहिज्जति, तं जहा-धम्मे चेव अधम्मे चेव, उवसंते चेव अणुवसंते चेव । ___ तत्थ णं जे से पढमस्स ठाणस्स अहम्भपक्खस्स विभंगे, तस्स णं अयमढे पण्णत्ते, इह खलु पाइणं वा ६ संतेगइया मणुस्सा भवंति, तं जहा-आरियावेगे, अणारिया वेगे, उच्चागोया वेगे, णीयागोया वेगे, कायमंता वेगे, हस्समंता वेगे, सुवण्णा वेगे, दुवण्णा वेगे, सुरूवा वेगे, दुरूवा वेगे। तेसि च णं इमं एयारूवं दंडसमादाणं संपेहाए, तं जहा–णेरइएसु वा, तिरिक्खजोणिएसुवा, मणुस्सेसु वा, देवेसु वा, जे जावन्ने तहप्पगारा पाणा विन्नू वेयणं वेयंति । तेसि पि य णं इमाइं तेरस किरियाठाणाई भवंतीतिमक्खायं, तं जहा-अट्ठादंडे १, अणट्ठादंडे २, हिसादंडे ३, अकम्हादंडे ४, दिद्धिविपरियासियादंडे ५, मोसवत्तिए ६, अदिन्नादाणवत्तिए ७, अज्झत्थवत्तिए ८, माणवत्तिए ६, मित्तदोसवत्तिए १०, मायावत्तिए ११, लोभवत्तिए १२, इरियावत्तिए १३ ॥ सू० १६॥ संस्कृत छाया श्रुतं मया आयुष्मता तेन भगवतेदमाख्यातम्-इह खलु क्रियास्थानं नामाध्यमनं प्रज्ञप्तम् तस्यायमर्थः । इह खलु संयूथेन (समूहेन--सामान्येव) द्वे स्थाने एवमाख्यायेते । तद्यथा-धर्मश्चैव अधर्मश्चैव, उपशान्तश्चैव अनुपशान्तश्चैव। तत्र योऽसौ प्रथमस्य स्थानस्य अधर्मपक्षस्य विभंगः, तस्य खल्वयमर्थः प्रज्ञप्तः। इह खलु प्राच्यां वा ६ सन्त्येकतये मनुष्याः भवन्ति, तद्यथा-आर्यावके, अनार्यावके, उच्चगोत्रावैके, नीचगोत्रावैके, कायवन्तोवैके, ह्रस्ववन्तोवैके, सुवर्णावैके, दुर्वर्णावैके, सुरूपावैके, दुरूपावैके । तेषां च खल्विदमेतद्रूपं दण्डसमादानं सम्प्रेक्ष्य तद्यथा--नैरयिकेषु वा, तिर्यग्योनिकेषु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
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