SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 124
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३ प्रथम अध्ययन : पुण्डरीक हैं। किन्तु ज्ञानी साधक पहले से ही यह मानते हैं कि जिस समय मनुष्य रोग से घिर जाता है, या कोई भयंकर विपत्ति या दुःख आ पड़ता है तो उस समय ये धनधान्य आदि साधन, जिन पर उसने मोह-ममत्व गड़ा दिया होता है. प्रार्थना करने पर भी उसे छुड़ा नहीं सकते। बल्कि ममत्वशील पुरुष को उतना ही अधिक दुःख उनसे वियोग का होता है । वह अपने कल्याण के साधन से वंचित रह जाता है। मतलब यह है कि मनुष्य अपने माने हुए खेत, मकान, धन, धान्य, पशु आदि सम्पत्ति को अपने सुख के साधन मानकर इनकी प्राप्ति के लिए तथा प्राप्त हुए साधनों की रक्षा के लिए जान की बाजी लगा देता है। परन्तु जब उस पर किसी रोगादि का आक्रमण होता है, तब उसका खेत आदि सम्पत्ति उसे रोगादि से मुक्त नहीं कर सकते । फिर भी अज्ञानी जन मानते हैं कि काम-भोग आदि साधन मेरे हैं, मैं इनका हूँ। किन्तु रोग या अन्य किन्हीं प्रकार के भयंकर कष्टों (जो कि अत्यन्त अनिष्ट, अप्रिय, अकान्त, अमनोज्ञ एवं दुःखोत्पादक होते हैं) के आ पड़ने पर यदि इन कामभोगों या ममत्व के केन्द्ररूप साधनों, से प्रार्थना की जाए कि "मेरे इस रोग, आतंक या पीड़ा से होने वाले दुःख को तुम सब मिलकर बाँट लो, सहभागी बन जाओ, ये रोगातंक मुझे अत्यन्त अप्रिय, अमनोज्ञ या दुःखरूप लगते हैं, ये मेरे लिए जरा भी सुख रूप नहीं हैं, इनके कारण मैं दुःखित, पीड़ित, संतप्त एवं क्षीणकाय. हो रहा हूँ, मैं दुःख, शोक, संताप पा रहा हूँ, झुर रहा हूँ, इन दुःखों से मुझे बचाओ।' तो ये काम-भोग आदि प्रार्थनाकर्ता को कदापि दुःखों से छुड़ा नहीं सकते बल्कि ये काम-भोग आदि साक्षात् या परम्परा से दुःखोत्पादक ही सिद्ध होते हैं। ये काम-भोग आदि न तो किसी की रक्षा करते हैं, न किसी को शरण देते हैं। या तो काम-भोग आदि को अपना मानने वाले यानी इन पर अपना स्वामित्व स्थापित करने वाले लोग आयु की अवधि पूरी हो जाने से पहले ही स्वयं छोड़कर चल बसते हैं, या फिर काम-भोग ही पहले से ही उक्त पुरुष को छोड़ देते हैं। इस प्रकार के वस्तुस्वरूप के यथार्थ चिन्तन के प्रकाश में ज्ञानवान् साधक सोचता है-- 'ये काम-भोग भिन्न हैं, मैं इनसे भिन्न हूँ। अर्थात् मेरा स्वरूप इन काम-भोगादि साधनों से पृथक् है, ये ममस्वरूप नहीं हैं और मैं इनका स्वरूप नहीं हूँ। तब फिर इन पराये कामभोगों के प्रति क्यों मोह-ममत्व करू ? जो वस्तु मेरी नहीं है, मुझ से पृथक हो जाने वाली है, या मुझे बरबस छोड़नी पड़ेगी, उसे मैं अपनी मानने या बनाने का मुर्खता क्यों करूं ? जो जिसकी वस्तु होती है, वह तीन काल में भी उससे अलग नहीं हो सकती। जैसे शीतलता जल का धर्म है, वह कदापि जल का परित्याग नहीं कर सकता; वैसे ही आत्मा के ज्ञानादि गुण हैं, वे उससे तीन काल में भी अलग नहीं हो सकते। अगर ये खेत आदि मेरे स्व-स्वरूप होते तो सदाकाल मेरे साथ ही रहते । मुझे छोड़कर कभी न जाते । किन्तु ऐसा प्रतीत नहीं होता। मैं विद्यमान रहता हूँ, फिर भी ये मुझे छोड़कर अन्यत्र चले जाते हैं, मेरी मौजूदगी में ही दूसरे के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003600
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorHemchandraji Maharaj, Amarmuni, Nemichandramuni
PublisherAtmagyan Pith
Publication Year1981
Total Pages498
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy